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अध्याय २१ "सत्या की प्रत्यक्ष घोषणा"
बडौत से विहार करके सर्वप्रथम श्राप अम्बाला शहर में पधारे । आज तक तो आप गुप्तरूप से ही जैनधर्म के वास्तविक स्वरूप का उपदेश करते रहे, परन्तु पूज्य श्री अमरसिंहजी के द्वारा किये गये आपके विरुद्ध प्रत्यक्ष प्रचार ने आपको भी प्रत्यक्ष रूप से निर्भय होकर सत्य की प्ररूपणा करने के लिये बाधित किया। इसमें सन्देह नहीं कि उस समय पूज्य अमरसिंहजी का पंजाब में बड़ा भारी जोर था, उनका शिष्य. वर्ग भी काफी था और उनके मुकाबले में आप अकेले थे परन्तु आपके और आपके सहायक श्री विश्नचन्द
और हाकमराय आदि साधुओं के गुप्त प्रचार ने पंजाब के हर एक शहर और ग्राम में अपना स्थान बना लिया था कोई भी ऐसा शहर या कस्बा नहीं था जहां कि दो चार संभावित गृहस्थ आपके अनुयायी न हों।
अम्बाले पहुँचने पर श्री आत्मारामजी ने अपने गुप्त रूप से किये जानेवाले शास्त्रीय विचारों को प्रत्यक्ष रूप देना प्रारम्भ किया । आप प्रतिदिन के प्रवचन में जिन विषयों की चर्चा करते, जिन सिद्धान्तों का मार्मिक उपदेश देते, उनका संक्षिप्त वर्गीकरण इस प्रकार है(१) अपने इस ढूढक पंथ का प्राचीन वीर परम्परा में कोई स्थान नहीं। इसके मूलपुरुष महावीर न
होकर लौंका और लव जी हैं। लौंकाशाह विक्रम की १६वीं सदी में हुआ और लवजी १८ वीं शताब्दी में। इसलिये १६ वीं शताब्दी से पूर्व इस पंथ का अस्तित्व नहीं था। इस पर भी बिना प्रमाण के इस पंथ को
वीरपरम्परा का प्रतिनिधि कहना व मानना अपने आपको धोखा देना है। ( २ ) इसी प्रकार मुंहपत्ती का बान्धना भी शास्त्र विरुद्ध है । जैन परम्परा में मुंह बान्धे रखने की प्रथा
लवजी से चली है इससे पहले प्राचीन वीर परम्परा में तो क्या लौकागच्छ में भी इस प्रथा का अस्तित्व नहीं था। यह तो केवल अठारवीं शताब्दी में जन्मे लवजी के मस्तिष्क की उपज है । जैनागमों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं ।
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