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________________ १३६ नवयुग निर्माता श्री आत्मारामजी - भय किस बात का गुरुदेव ! श्री जीवनमलजी - इसी बात का कि पंजाब में पूज्यजी साहब का बहुत जोर है - सब लोग उनके पीछे हैं और तुम अकेले हो । श्री आत्मारामजी - मैं अकेला नहीं हूँ गुरुदेव ! मेरे पीछे सत्य का बल है । ये लोग लाख विरोध करें तो भी सफल नहीं हो सकेंगे ! वोह दिन बहुत समीप है जब कि इसी सत्य के बल पर पंजाब में शुद्ध सनातन जैन धर्म का फिर से डंका बजेगा, स्थान स्थान में वीतराग देव के गगनचुम्बी शिखरबन्ध मन्दिर होंगे और सहस्रों नरनारी बीतराग देव की पूजा सेवा से अपने सम्यक्त्व को निर्मल करने का सौभाग्य प्राप्त करेंगे। आप इसके लिये किसी प्रकार की चिन्ता न करें मैं स्वयं इनसे निपट लूंगा, सत्य के पुजारी के सामने भय को कभी कोई स्थान नहीं मिलता । (ग) पूज्यजी के भक्तों का मनोरथ इतना कहने के बाद गुरुजी को वन्दना की और उत्तर में गुरुजी ने कहा - अच्छा बेटा ! तुमको अपने इस कार्य में सफलता प्राप्त हो यही हमारा हार्दिक आशीर्वाद है । तदनन्तर गुरुजी के साथ ही श्री आत्मारामजी ने देहली की ओर बिहार किया और थोड़े दिनों में देहली पहुँच गये। जैसा कि प्रथम बतलाया गया है पूज्य अमरसिंहजी ने पंजाब और उसके बाहर अपने भक्तों को पत्र लिखवा दिये कि आत्मारामजी की श्रद्धा बिगड़ गई है वे मूर्तिपूजा का उपदेश करते हैं और मुंहपत्ती बान्धे रखने का निषेध करते हैं इसलिये हमारी आम्नाय में रहने वाले किसी भी श्रावक को उनके परिचय में नहीं आना चाहिये तथा उनके ठहरने के लिये स्थान आदि का प्रबन्ध और आहार पानी आदि की विनती भी नहीं करनी चाहिये, इत्यादि । इन पत्रों के पहुंचने पर पूज्य अमरसिंहजी के अन्धश्रद्धालु और शास्त्रीयबोध से शून्य लोगों ने अपने मनमें यह सोच रक्खा था कि जिस वक्त आत्मारामजी देहली में आवेंगे उस वक्त हम उनके साथ चर्चा करेंगे तथा चर्चा में उनको चुप कराकर यहां से निकाल देंगे । वास्तव में उनका यह मनोरथ वैसा ही था जैसा कि रात्रि के समय में बहुत से कौशिक - ( उल्लू) मिलकर यह फैसला करें कि, सूर्य उगेगा तो हम सब उसे मार भगावेंगे ! महाराज श्री आत्मारामजी जिस समय देहली में आये तो कतिपय विवेकशील गृहस्थों ने उनका समुचित स्वागत किया और व्याख्यान बाँचने की सविनय प्रार्थना की। आपने उस समय सटीक उत्तराध्ययन का २८ वाँ अध्ययन वाचना आरम्भ किया। प्रथम तो इस अध्ययन का विषय ही इतना मनोरंजक है कि सुनने वाले का जी नही भरता और फिर आप जैसे प्रतिभाशाली विद्वान् मुनिराज बाँचने वाले हों तब तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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