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विरोधि दल का सामना
वाह वाह के लिये घरबार का परित्याग नहीं किया । मैं तो सत्य का जिज्ञासु हूँ, सत्यका अनुसरण और सत्य की प्ररूपणा करना मेरे साधु जीवन का कर्तव्य है इसलिये मैं तो उसी आचार विचार को स्वीकार करूगा जो कि श्रमण भगवान महावीर भाषित अथच शास्त्र विहित है ! पहले मैं यही समझता रहा कि मैं जिस पंथ में दीक्षित हुआ हूँ वह श्रमण भगवान महावीर स्वामी के बतलाये हुए धर्म मार्ग का अनुगामी है और उसी का साक्षात् वीरपरम्परा से सम्बन्ध है परन्तु जब मैंने व्याकरणादि शास्त्रों के अध्ययन के बाद आगमों का उनके भाष्य और टीकादि के अनुसार एक विशिष्ट विद्वान साधु से अभ्यास किया तब मुझे मालूम हुआ कि इस पंथ का सारा ही आचार विचार वीर प्ररूपित धर्म के विरुद्ध है । एवं इस पंथ के मूल पुरुष लौंका
और लवजी हैं न कि भगवान महावीर । वीर परम्परा में तो इसको कहीं भी स्थान नहीं। ऐसी परिस्थिति में मेरे जैसा सत्यका गवेषक केवल प्रतिष्ठा और आहार पानी के लिये सत्य को त्यागकर इस पंथ में फंसा रहे यह कभी नहीं हो सकता ! सत्य के सामने किसी प्रकार के भी सांसारिक प्रलोभनों का कोई मूल्य नहीं, इसलिये सत्य के पक्षपाती की दृष्टि में ये सब के सब नगण्य हैं । यदि तुम लोगों को परभव का कुछ भी भय है तो पक्षपात और दुराग्रह को त्यागकर सत्य के पक्षपाती बनने का यत्न करो! मेरा यह सारा वक्तव्य पूज्यजी साहब को सुना देना और कहना कि इस मेजरनामे को अपने पाठ के पुढे में संभाल रक्खें ! सत्य के जिज्ञासु के सामने यह रद्दी के पुर्जे से अधिक कुछ भी मूल्य नही रखता।
महाराज श्री आत्माराम जी के इस तथ्यपूर्ण अओजस्वी भाषण को सुनकर पन्नालालजी तो एकदम ठंडे पड़गये और कांपते हुए स्वर से "अच्छा महाराज जैसी आपकी इच्छा" कहकर वहां से उठकर अपने आसन पर जा बैठे।
(ख) गुरु शिष्य वार्तालाप
अब श्री श्रआत्मारामजी ने अपने गुरु श्री जीवनमलजी को सम्बोधित करते हुए कहा-गुरु महाराज ! आपने इस कागज़ पर हस्ताक्षर क्यों किये ? क्या आप यह नहीं जानते थे कि यह षड्यंत्र केवल मेरे को नीचा दिखाने के लिये रचा जा रहा है ? मालूम होता है आप भी उसी बेडीपर सवार हो रहे हैं जिसका कर्णधार नितान्त अबोध है और बेड़ी स्वयं अत्यन्त जीर्णशीर्ण है जिससे उसका मझधार में डूबना सुनिश्चित सा है। क्या आपने भी मेरी सत्यनिष्ठा ज्ञान सम्पति और विनय शीलता आदि को इन्हीं लोगों की दृष्टि में बैठकर देखने का यत्न किया है ? नहीं ! आपके यह अनुरूप नहीं है ।
__ श्री जीवनमलजी-नहीं बेटा ! ऐसा नहीं ! मुझे तो तुम्हारे जैसे प्रतिभाशाली सद्गुण सम्पन्न योग्य शिष्य का उपलब्ध होना ही अत्यन्त गौरव और सद्भाग्य की बात है ! मेरे से जो हस्ताक्षर कराये गये हैं वे ज़बरदस्ती और छलपूर्वक कराये गये हैं ! एवं उस समय मैं कुछ भयभीत सा भी था ।
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