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________________ १३२ नवयुग निर्माता घूमा कोकिल वृन्द वीच सुख से आजन्म तूं काक रे ! छोड़ा किन्तु कटूक्ति को न फिर भी हा हन्त ! तूने अरे! किंवा है लवलेश दोष इसमें तेरा नहीं दुर्मते ! या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते ॥ फिर भी कहने लगा कि मेरे साथ तो "लेने गई पूत और खो आई खसम" * वाली ही बात बनी। मैं तो आत्मारामजी को समझाने के लिये इन्हें (चन्दनलालजी) को लाया था, परन्तु ये तो समझाने के बदले समझने वाले ही प्रमाणित हुए । आत्मारामजी को अपना बनाने के बदले स्वयं उनके बन गये। इधर श्री आत्मारामजी ने उसे-जीतमल को अयोग्य समझकर उपेक्षा करदी। श्री चन्दनलालजी ने अपने गुरु श्री रूड़मलजी के पास आकर श्री आत्मारामजी का सारा कथन कह सुनाया, तब उन्होंने भी श्री आत्मारामजी के शास्त्रसम्मत कथन का सहर्ष स्वागत किया और कहा कि श्री आत्मारामजी का कथन बिलकुल सत्य और उपादेय है । अतः हम भी उन्हीं का अनुसरण करेंगे। हम लोग इस विषय में शंकाशील तो बहुत समय से थे परन्तु आज उनके स्पष्टीकरण करने पर सब कुछ साफ हो गया। अब मन में कोई सन्देह बाकी नहीं रहा । फलस्वरूप रूड़मलजी आदि साधु भी श्री आत्मारामजी के अनुगामी बने और उससे उनके-आत्मारामजी के निर्धारित कार्यक्रम को और भी प्रोत्साहन मिला । इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में विचरते और जनता को सत्य मार्ग पर लाते हुए १६२५ का चतुर्मास आपने बड़ौत में किया। यहां आपने बिनौली में प्रारम्भ किये गये नवतत्त्व ग्रन्थ को सम्पूर्ण किया । । * किसी ग्राम में एक महात्मा पधारे, वे बड़े सिद्ध पुरुष थे, लोग उनके दर्शन करने जाते और बड़ी प्रशंसा करते । एक दिन पुत्र प्राप्ति की लालसा से एक स्त्री अपने पति को साथ लेकर महात्मा के पास आई और नमस्कार करके बड़ी नम्रता से बोली-कि महाराज ! श्राप सिद्ध पुरुष हैं, मेरे कोई पुत्र नहों, श्राप कृपा करके मुझे पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दें मैं इसी उद्देश से इन्हें-(पति को) साथ लेकर आपके चरणों में उपस्थित हुई हूँ ? महात्मा बड़े पहुँचे हुए स धु थे, उन्होंने अपने ज्ञान बल से सब कुछ जान लिया, पास में बैठे हुए उसके पति को उन्होंने उपदेश देना प्रारम्भ किया, उपदेश का उसके ऊपर इतना प्रभाव हुआ कि वह उसी समय सब कुछ छोडकर उनका शिष्य बन गया! तब उसने अपनी स्त्री को कहा कि अब तुम्हारा मेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहा, तुम अपने घर को जाश्रो और भगवत् चिन्तन करो ! वह विचारी शेती हुई घर को वापिस श्रागई। उसे पुत्र तो क्या मिलना था पति भी उसके हाथ से गया। इस कहानी को लक्ष्य में रखकर ही यह कहावत बनी है-“लेने गई पूत और खो आई खसम" । इस ग्रन्थ में जीवाजीवादि तत्वों के स्वरूप का बड़ी ही सुन्दरता से स्पष्टीकरण किया गया है। हिन्दी भाषा भाषी सज्जनों को जैन तत्वों के ज्ञान के लिये यह बड़ा ही उपयोगी है! इसके अतिरिक्त ग्रन्थ निर्माता की शास्त्रीय योग्यता का भी इससे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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