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________________ १२६ नवयुग निर्माता पूज्य जी साहब ! आप जो कुछ फर्मा रहे हैं वह ठीक होगा परन्तु एक बात मैं आपसे नम्रतापूर्वक कहता हूँ - आप आत्मारामजी से अपने मत सम्बन्धि चर्चा करने की कभी भूल न कर बैठें। यदि करोगे तो याद रखना आपको बहुत नीचा देखना पड़ेगा। मैं आत्मारामजी को बहुत अच्छी तरह से समझता हूँ और मानता हूँ कि इनके सामने अपने साधुओं में से कोई भी उत्तर प्रत्युत्तर करने की शक्ति नहीं रखता, इनके समान ज्ञानवान और प्रभावशाली पुरुष अपने सम्प्रदाय में इस वक्त कोई नजर नहीं आता। इसलिये इनका मुकाबिला करने की अपेक्षा इन से मेल जोल रखना ही हितकर होगा। ऐसी मेरी समझ और मान्यता है, आगे आप मालिक हैं । लाला सौदागरमल के इस कथन को सुनकर पूज्य अमरसिंहजी तो एक दम चकित से रहगये । उन्हें तो यह विश्वास था कि सौदागरमल उनका पक्का भक्त है इस लिए उनके कथन का सर्वेसर्वा समर्थन करेगा और उसे सक्रिय बनाने में पूज्यजी साहब को पूरा सहयोग देगा । परन्तु बात इससे बिलकुल विपरीत हुई जिससे कि वे कुछ हताश होगये और कुछ देर विचार करने के बाद उनको लाला सौदागरमल का कथन उचित प्रतीत हुआ । तदनुसार वह आत्मारामजी से मेलजोल बढ़ाने का यत्न करने लगे । सत्य है, "डरती हर हर करती" एक दिन श्री आत्मारामजी को एकान्त में लेजाकर उनसे सप्रेम बोले- बेटा आत्माराम ! सचमुच ही तू हमारे इस मत में एक बहुमूल्य रत्न पैदा हुआ है ! तेरी बराबरी करने वाला इस समय हमारे इस मत में दूसरा कोई व्यक्ति नहीं है । इसलिए तुमको ऐसा काम करना चाहिये जिससे तुम्हारे और हमारे अन्दर कोई बिगाड़ पैदा न हो बक्लि आपस में मेल जोल बढ़े। श्री आत्मारामजी — पूज्यजी साहब ! आप जो कुछ फर्मा रहे हैं वह ठीक है परन्तु क्या किया जाय आगम वेता पूर्वाचार्यों के लेखों के विपरीत अब मुझ से प्ररूपरणा होनी अशक्य है । मैं तो वही कुछ कहूँगा जो शास्त्रविहित होगा शास्त्र विरुद्ध मनःकल्पित आचार विचारों के लिए अब मेरे हृदय में कोई स्थान नहीं रहा और मेरी आपसे भी विनम्र प्रार्थना है कि आप झूठे आग्रह को छोड़कर तटस्थ मनोवृत्ति से सत्यासत्य का निर्णय करने का यत्न करें, तथा शास्त्रीय दृष्टि से जो सत्य प्रमाणित हो उसे बिना किसी संकोच के स्वीकार करलेना चाहिये । यह मनुष्य जन्म बार २ मिलना कठिन है, हम लोगों ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के धर्म मार्ग का अनुसरण करने के लिए ही घरवार का परित्याग किया है । इसलिये साधु और गृहस्थ का जो धर्म भगवान ने निर्दिष्ट किया है और गणधर देवने जिसका आगमों में उल्लेख किया तथा परम मेधावी पूर्वाचार्यों ने जिसका परमार्थ समझाया है उसीका आचारण तथा उपदेश करना हमारा धर्म होना चाहिये | आप इस समाज के नेता हैं, आपको तो इस ओर सबसे अधिक लक्ष्य देने की आवश्यकता है, इत्यादि । परन्तु श्री आत्मारामजी के इस कथन का पूज्य श्री अमरसिंहजी के हृदय पर कुछ असर नहीं हुआ और उन्होंने इस हित शिक्षा से लाभ उठाने के बदले इसे अहितकर समझा और वहां से चुपचाप उठकर चल दिये - विद्वेष की भावना को हृदय में लेकर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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