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________________ अध्याय १६ स्पष्टवादिता नहीं लाता कि सुनने वाले उसके देखकर व्याख्यान में फर्माया कि जो व्यक्ति ज्ञान सम्पदा से युक्त होकर परमार्थ को समझ लेता है और जिसके पुनीत हृदय में एकमात्र सत्य को अपनाने की भावना सजग रहती है वह बिना किसी लाग लपेट के सत्य और स्पष्ट कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करता, और वह इस बात को भी ध्यान में कथन से प्रसन्न होंगे या अप्रसन्न । एक दिन श्री आत्मारामजी ने अवसर "जो लोग पूर्वाचार्यों के किये हुए यथार्थ अर्थ को त्यागकर सूत्रों के मनमाने अर्थ कर रहे हैं एवं उन्हीं मन:कल्पित अर्थों को सत्य समझने का आग्रह कर रहे हैं उन भद्रपुरुषों का परभव में क्या हाल होगा यह तो ज्ञानी महाराज ही बता सकते हैं परन्तु इतना तो सुनिश्चित है कि उनके लिये जघन्य गति के सिवा और कोई स्थान नहीं ।" यह सुनकर पूज्य श्री अमरसिंहजी तो मन ही मन क्रोध से भर गये और अपने स्थान पर आकर नमें बसे हुए क्रोध के दावानल को बाहर निकालने के लिये शीघ्र से शीघ्र अवसर की तलाश करने लगे । इतने में स्यालकोट निवासी सोदागरमल नाम का एक श्रावक जोकि उन दिनों किसी कारणवश अमृतसर में या हुआ था और जो उस समय ढूंढक मतानुयायी श्रावकों में मुख्य एवं जानकार माना जाता था वह पूज्य अमरसिंहजी के पास आया । तत्र पूज्य अमरसिंहजी ने उसके पास अपने हृदय की भड़ास को इन शब्दों में निकालना आरम्भ किया भाई सौदागरमल ! आजकल आत्माराम को अपने ज्ञान का बड़ा अभिमान होगया है आज की व्याख्यान सभा में उसने ऐसे शब्द कहे हैं कि जिनको मैं किसी हालत में भी बर्दाश्त नहीं कर सकता मुझे इसका अभिमान तोड़ना होगा, मेरे आगे यह कुछ भी नहीं है ? मैं आज ही इसको चर्चा के लिये चुनौती दूंगा इत्यादि । पूज्य अमरसिंहजी के क्रोध और अभिमान से भरे हुए इन उद्गारों को सुनकर विनयपूर्वक सौदागरमल ने कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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