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________________ १२४ नवयुग निर्माता इस प्रकार जालन्धर में अजीव पन्थ मत के साधुओं को शास्त्र सभा में पराजित करके श्री आत्मारामजी ने श्री विश्वन्दजी आदि साधुओं को साथ लेकर अमृतसर की ओर विहार कर दिया ग्रामानुग्राम विचरते हुए अमृतसर पधारे और लाला उत्तमचन्दजी जौहरी की बैठक में उतारा किया। वहां आपने व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र सटीक वाचना आरम्भ किया। उन दिनों पूज्य अमरसिंहजी भी अमृतसर में ही विराजमान थे। वे भी अपने शिष्यों सहित आपके व्याख्यान में आया करते थे। आपके व्याख्यान की शैली इतनी आकर्षक और मोहक होती कि सुनने वाले मंत्रमुग्ध होजाते ! श्रोताओं की संख्या दिन प्रतिदिन इतनी बढ़ने लगी कि मकान में बैठने को स्थान मिलना कठिन होगया! तब सबने मिलकर एक दूसरे खुले मकान का प्रबन्ध किया और वहां पर व्याख्यान होने लगा ! श्रोताओं की भीड़ वहां पर भी इतनी होती कि कहीं तिल धरने को जगह न रहती। आपकी व्याख्यान शैली की किन शब्दों में प्रशंसा करें ? जो कोई भी एक बार सुनने को आता वह इतना प्रभावित होता कि दूसरे दिन के व्याख्यान को श्रवण करने के लिये बड़ी अधीरता से समय व्यतीत करता। आपका सारगर्भित उपदेशामृत का पान करने के लिये समय से पहले ही श्रोताओं से स्थान खचाखच भर जाता । जिस समय आप व्याख्यान के लिए पधारते उस समय श्रोताओं के हर्षनाद से व्याख्यान भवन गूंज उठता । पूज्य अमरसिंहजी तो आपकी व्याख्यानकला से इतने प्रभावित हुए कि एक दिन आपसे सप्रेम कहने लगे कि भाई आत्माराम ! मुझे विश्वास ही नहीं किन्तु निश्चय है कि भविष्य में तुम्हारे हाथ से जैन धर्म का बड़ा भारी उद्योत होगा और तुम हमारे सम्प्रदाय में सूर्य की तरह चमकोगे । परन्तु तुम यदि अपनी इस ज्ञान विभूति का सदुपयोग करना मेरे शिष्यों को भी बतलादो तो जैन धर्म को और भी अधिक प्रभावना हो इत्यादि। पूज्य अमरसिंहजी के उक्त कथन को सुन कर श्री आत्मारामजी ने कहा-पूज्यजी साहब ! मुझे आपकी आज्ञा के पालन करने में जरा जितना भी संकोच नहीं । परन्तु प्राकृत और संस्कृत के सुचारु बोध के लिये सर्वप्रथम उनके व्याकरण के ज्ञान की आवश्यकता है। व्याकरण के बोध बिना पदपदार्थ का यथार्थ ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है । इस लिए यदि आप चाहते हैं कि आपका यह शिष्यवर्ग सुयोग्य व्याख्याता और शास्त्रों का जानकार बने तो सर्व प्रथम आप इन्हें शब्दशास्त्र-व्याकरण का बोध कराने का यत्न करें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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