SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म प्रचार की गुप्त मंत्रणा १२१ भार दिया गया । इस प्रकार के वातावरण में रात दिन रहने के कारण मैंने भी निरन्तर इन्हीं बातों का जीवन भर प्रचार किया जिसका कि तुमको भी पूरा अनुभव है । अब जब कि मैं और मेरा शिष्यवर्ग स्वनाम धन्य मुनि श्री आत्माराम जी के संसर्ग में आया और उन्होंने जब हमें लगातार आगम ग्रन्थों का अभ्यास कराना शुरु किया तथा उन के वास्तविक रहस्य को समझाया तब हमारी आंखें खुली और वस्तु तत्त्व का यथार्थ भान हुआ। उन्हीं की अनन्य कृपा से हमारे अन्धकार पूर्ण हृदयाकाश में ज्ञान ज्योति का उदय हुआ उसके निर्मल प्रकाश में जब हमने जैनधर्म के स्वरूप का अवलोकन किया तो वहां इस पंथ का कोई चिन्ह मात्र भी हमें दिखाई न दिया। इसका कोई भी सिद्धान्त या आचार विचार जैन शास्त्रों के अनुसार देखने में नहीं आया । और वास्तव में इस पंथ के मूल पुरुष लौंका और लवजी हैं । सर्व प्रथम लौंका ने मूर्ति का निषेध किया और लवजी ने मुंहपत्ती बान्धना प्रारम्भ किया इससे पूर्व जैन परम्परा में ये दोनों बातें नहीं थी । अतः इस पंथ का सम्बन्ध लौंका और लवजी से है न कि वीर भगवान से। उसके नाम का तो यहां झूठा ही ढंढोरा पीटा जाता है। इसके अनन्तर लाला घसीटामल को सम्बोधित करते हुए श्री विश्नचन्दजी बोले-लाला जी ! इस पंथ में दीक्षित होने के बाद मैंने तुम्हें और तुम्हारे जैसे दूसरे गृहस्थों को जो उपदेश दिया वह जैन शास्त्रों से सर्वथा विपरीत दिया जिसका कि मुझे अधिक से अधिक पश्चाताप हो रहा है । उसीका प्रायश्चित करने के लिए अब मैं भ्रमण कर रहा हूँ । इमी हेतु से मैंने तुम्हें यहां एकान्त में बुलाकर वस्तुस्थिति का यथार्थ भान कराने का यत्न किया है । इस प्रकार जब २ समय मिलता तब तब लाला घसीटामल और श्री विश्नचन्दजी में वार्तालाप होता रहता, इस वार्तालाप से लाला घसीटामल के हृदय में काफी परिवर्तन श्रागया और पहले के श्रद्धान की नौका डगमगाने लगी। एक दिन वह श्री विश्नचन्दजी के पास आकर बोलामहाराज ! आपका दिया हुआ सदुपदेश हृदय को स्पर्श करता है । और उसपर आस्था लाने की सद्भावना भी जागती है । परन्तु आपके दिये हुए इन सद्विचारों को इस मलिन हृदय में अधिक समय तक टिकने का अवकाश नहीं मिलता । बहुत समय के संचित हुए पहले संस्कारों ने मेरे हृदय पर ऐसा, अधिकार जमा लिया है कि वे नये विचारों को अन्दर घुसने ही नहीं देते, कृपया इसका कुछ उपाय बतलाइये। श्री विश्नचन्दजी-तुम अभी कुछ दिन धैर्य करो। हमारी ओर से दिये गये उपदेश को स्मृति में रखते हुए एक काम करो ! तुम्हारा पुत्र अमीचन्द जो इस समय पढ़ रहा है और अच्छा बुद्धिमान है उसको व्याकरण शास्त्र के अध्ययन में लगाओ और जब वह व्याकरण शास्त्र का बोध प्राप्त कर लेगा, तव उससे पूछना कि यथार्थ वस्तु क्या है ? वह जो कुछ कहे उसे स्वीकार करना । लाला घसीटामल को यह बात बहुत पसंद आई और अपने लड़के को व्याकरण का पढ़ाना आरम्भ किया। कुछ समय बाद जब वह व्युत्पन्न हो गया तो लाला घसीटामल उससे बोले-पुत्र ! किसी प्रकार का पक्षपात न करते हुए जो सत्य हो वह तुम मुझे बतायो ? मेरे लिए तुमसे अधिक विश्वास योग्य दूसरा कोई नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy