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नवयुग निर्माता
शून्य व्यक्ति के लिये - जो कि स्वयं अपनी बुद्धि से किसी प्रकार का अन्तिम निर्णय करने में असमर्थ है। हां ! इतना अनुभव तो जरूर हुआ कि इस समय के आपके उपदेश ने जितना हृदय को स्पर्श किया है उतना इससे पहले कभी नहीं किया, न जाने इसमें क्या रहस्य है । फिर एक बात और भी विचारणीय है- ये पांच महाव्रतों के पालन करने वाले हैं कांचन और कामिनी के त्यागी हैं इनमें किसी प्रकार का निजी स्वार्थ भी देखने में नहीं आता, तब इनका मेरे को एकान्त में बिठाकर इस प्रकार धर्म का उपदेश करना अवश्य रहस्य पूर्ण होना चाहिये, जिसे कि मैं अभीतक समझ नहीं पाया । श्रस्तु इस उलझन को आपके ही सामने रखता हूँ, यह उलझन आपने ही डाली है और आपही सुलझायेंगे। इस प्रकार मानसिक विचार परम्परा में उलझे हुए लाला घसीटाल ने कुछ क्षणों के बाद सजग होकर श्री विश्वचन्दजी की ओर देखा और हाथ जोड़कर कहने लगेगुरुदेव ! यदि अपराध क्षमा हो तो कुछ अर्ज करू ?
श्री विश्नचन्दजी-बड़ी खुशी से ? जो कुछ कहना चाहो बड़े खुले दिल से कहो। तुम मेरे श्रावक हो और मैं तुम्हारा गुरु, सच्चे गुरु शिष्य भाव में किसी प्रकार के भेद भाव को अवकाश ही नहीं होता इसलिये जो कुछ कहना चाहो बिना संकोच कहो ।
श्री घसीटामल जी - आज से पहले तो कभी आपने ऐसा उपदेश नहीं दिया जैसा कि आज दे रहे हैं इसका क्या कारण ? क्या इसे मैं अपना सद्भाग्य समकूं या कुछ और ?
श्री विश्नचन्दजी—यही कारण कि पहले मैं बिना आंख का था अब मुझे आंखें मिल गई । इसलिये पहले मैं जो कुछ कहता था वह सुना सुनाया कहता था, और अब आंखों देखा कहता हूँ । अब रही सद्भाग्य या दुर्भाग्य की बात, सो इसका पता तुमको कुछ समय के बाद स्वयं ही लग जायगा ।
श्री घसीटामलजी - गुरु महाराज ! मैं आपके इस कथन का कुछ भी आशय समझ नहीं पाया, आप इसे कुछ स्पष्ट शब्दों में बतलाने की कृपा करो !
श्री विश्नचन्दजी - पहले - आज से लगभग डेढ वर्ष पूर्व तक मैं और मेरा यह शिष्यवर्ग भी तुम्हारी तरह बिना आंख का अर्थात् वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप से सर्वथा अज्ञात था । यथार्थज्ञान से शून्य होने के कारण उन्मार्ग को ही मैंने सन्मार्ग समझा परिणामस्वरूप इस पंथ को ही जैन धर्म का सच्चा प्रतीक समझकर मैं इसमें दीक्षित गया। मुझे दीक्षा देने वालों ने एक मात्र इसी पंथ को जैन धर्म का नाम देकर प्रचार करने का आदेश दिया और मेरे इस वेष को ही श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के साधु का सच्चा वेष बतलाया तथा अपने इस आचार विचार को ही शास्त्र संगत बतलाया । इसके अतिरिक्त ३२ मूल आगम ही सच्चे और मानने योग्य हैं उनसे भिन्न बाकी के सभी कपोल कल्पित हैं या मनघडंत हैं ऐसा समझने का आग्रह किया । एवं आगम ग्रन्थों पर रचे गये पूर्वाचार्यों के नियुक्ति भाष्य और टीका आदि का तो नाम लेना भी पाप बतलाया गया तथा मूर्तिपूजाको आगम बाह्य बतलाने और उसे सावध करणी कहकर कोसने पर अधिक से अधिक
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