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अध्याय १४
"पट्टी का मनोरंजक प्रकरण'
उन दिनों पंजाब की ढूंढक सम्प्रदाय का नेतृत्व पूज्य श्री अमरसिंहजी के हाथ में था। श्री विश्नचंदजी आदि सब इन्हीं के शिष्य परिवार में से थे। पट्टी के रईस लाला घसीटामलजी पूज्य अमरसिंहजी के मुख्य श्रावकों में से एक थे। पूज्य श्री के चरणों में उनकी अनन्य श्रद्धा थी और इधर श्री विश्नचन्दजी में भी उनका काफी अनुराग था यहां तक कि इनको वे अपना गुरु मानते थे । जब श्री विश्नचन्दजी अपने शिष्य श्री चम्पालाल के साथ पट्टी में आये तो घसीटामल और वहां के दूसरे श्रावकों ने आपका सहर्ष स्वागत किया।
पाठकों को इतना स्मरण रहे कि लाला घसीटामल का पट्टी की ओसवाल बिरादरी में भी बहुमान था, बिरादरी का हर काम आपके सलाह मशवरे से होता । एक दो दिन के बाद श्री विश्नचन्दजी ने घसीटामल को एकान्त में बिठाकर प्रतिबोध देना प्रारम्भ किया और जैन धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझाने के साथ साथ उसपर आस्था लाने का भी अनुरोध किया । परन्तु घसीटामल के लिये यह सब कुछ नयाथा। मूर्तिपूजा आगम विहित है, और बहुत प्राचीन काल से उसका पूजन चला आता है एवं प्रभुप्रतिमा प्रभु के ही समान वन्दनीय अथच पूजनीय है, इस प्रकार के वचन सुनने का तो उसे इस जन्म में यह पहला ही अवसर था, और वह भी उस साधु के मुख से जिसने इससे पूर्व उसके हृदय को मूर्तिपूजा विरोधी उपदेश से भरपूर कर रक्खा था। .
श्री विश्नचन्दजी के मुख से-इससे पहले कभी न सुने गये-इन वचनों को सुनकर वह अवाक् सा रहगया और मनमें सोचने लगा कि यह क्या माजरा है ? कुछ समझ में नहीं आता । पहले इन्हीं महाराज के उपदेश से मैंने "पूजों की संगत छोड़कर समकित ली" और इस पंथ को वीतराग देव का सच्चा पंथ समझा,और आज येही महाराज मुझे इसके सर्वथा विपरीत उपदेश दे रहे हैं । तब इन दो में से मैं इनके किस उपदेश को सच्चा समझू ? पहले को या जिसका अब उपदेश दिया है उसको? बड़ी विकट समस्या है ! मेरे जैसे बोध
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