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________________ ११८ नवयुग निर्माता यही दो आपके नहीं नहीं प्राचीन जैन परम्परा के अनुगामी बने । अर्थात् इन दो गृहस्थों ने आपके बताये हुए सन्मार्ग पर चलने का व्रत लिया। आप श्री की पुण्य श्लोक जीवन गाथा में मालेरकोटला का नाम विशेष उल्लेखनीय है ! सर्व प्रथम श्रापकी दीक्षा मालेरकोटला में हुई । तदनन्तर वर्षों की तपस्या और साधना के फलस्वरूप प्राप्त हुई ज्ञान विभूति का सदुपयोग भी आपने मालेरकोटला में किया और १६२१ के चतुर्मास में मुनि श्री विश्नचन्द तथा उनके शिष्य श्री चम्पालाल हाकमराय और निहालचन्दजी आदि साधुओं को सत्य सनातन जैन धर्म की आस्था वाले बनाया, तथा सर्वप्रथम जैन शास्त्रानुसार श्रावक धर्म में दीक्षित होने का सद्भाग्य भी यहीं के दो श्रावकों को प्राप्त हुआ। इधर श्री विश्नचन्द और चंपालालजी ने जंडियाला गुरु में जाकर वहां के श्री मोहरसिंह और विसाखीमल को प्रतिबोध देकर जैनधर्म के अनुयायी बनाया और अमृतसर के लाला बूटेराय जी जौहरी को अपने विचारों के अनुगामी बनाया तथा साधु हुक्मीचन्दजी को शुद्ध सनातन जैन धर्म की आस्था वाला बनाया । श्री विश्नचन्द, चम्पालाल, हाकमराय और निहालचन्दजी आदि की सहायता से श्री आत्मरामजी के शास्त्रीय सद्विचारों को अपनाने वाले गृहस्थों की दिन प्रतिदिन संख्या बढ़ने लगी । धीरे धीरे लोगों का झुकाव ढूंढक मत की तरफ से हटकर प्राचीन जैन धर्म की ओर बढ़ने लगा । इस प्रकार श्री श्रात्मारामजी और उनके सहायक श्री विश्नचन्दजी आदि के पुरुषार्थ से उनके सद्विचारों का अनुगमन करने वालों की संख्या में वृद्धि होती ही गई.। ऐसा कोई दिन नहीं था जिसमें आपके दो चार श्रावक न बने हों। इस तरह से धीरे धीरे इनके अनुयायियों की संख्या सैंकड़ों से सहस्रों तक जा पहुंची। यह सब कुछ सत्यनिष्ठा आत्मविश्वास और गुरुजनों के आशीर्वाद को ही आभारी है। इन्हीं के सहारे श्रापको इतनी सफलता प्राप्त हुई। AM S KARNAL VALEUMAUSA PAMAILONDIA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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