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अध्याय १३
वल संग्रह की ओर
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मालेरकोटला से लुधियाने होते हुए विचरते २ श्री आत्मारामजी देश नाम के ग्राम में पधारे और वहां एक यति के पास से आपको सटीक - शीलांकाचार्य की टीकावाली आचारांग सूत्र की एक हस्तलिखित प्रति उपलब्ध हुई । जिसकी प्राप्ति से आपको असीम आनन्द हुआ। वहां से रणिया और रोडी होते हुए सरसा पधारे और १६२२ का चतुर्मास सरसा में किया। यहां आपने बड़गच्छ के यति श्री रामसुखजी से दो तीन ज्योतिष के ग्रन्थों का अध्ययन किया ! सरसे का चतुर्मास पूरा करके श्राप सुनाम में आये यहां पर नीराम नाम के एक ढूँढक साधु से आपकी भेट हुई । प्रसंगोपात उसके साथ साधु के वेष और प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में वार्तालाप हुआ। इस वार्तालाप में आपने उससे जो कुछ पूछा उसका उत्तर तो उससे बिल्कुल बन न पड़ा किन्तु क्रोध में आकर यह कहा कि तुम्हारी श्रद्धा भ्रष्ट होगई है। तुम अपने गुरु और दादागुरु के कथन में शंका कर रहे हो ! इस पर आपने जरा उत्तेजित होकर फर्माया कि मैं अपने गुरु या दागुरु
मन करता हूँ परन्तु धर्म के सम्बन्ध में वे जो कुछ उलटा सीधा कहें जिसके लिए शास्त्र का कोई भी आधार न हो उसे श्रखमीच कर स्वीकार करना तो एक प्रकार की मूर्खता है । इसे कोई भी बुद्धिमान उचित नहीं समझता । मैंने तो आपसे यही पूछा है कि मैं और आपने जो साधु वेष पहन रक्खा है वह किस शास्त्र के आधार से ? तथा आप जो प्रतिक्रमण करते हैं और जिस विधि से करते हैं उसका उल्लेख किस में है ? परन्तु इसके उत्तर में मुझे आप कहते हो कि तुम्हारी श्रद्धा भ्रष्ट होगई। तो क्या आपके हुए आगम ग्रन्थों में इस प्रश्न का ऐसा ही उत्तर देना लिखा है। इस वार्तालाप को वहां कुछ और आदमी भी सुन रहे थे। जब उन्होंने कहा कि महाराज ठीक कह रहे हैं, आपको इसका उत्तर देना चाहिये, तब क्रोव के वेश में कुछ बड़बड़ाते हुए कनीरामजी ने तो रास्ता पकड़ा और आप वहां से मालेरकोटला में आये ।
सूत्र
माने
मालेरकोटला में आकर आपने अपने कार्य का श्रीगणेश किया ! वहां के रईस लाला कंवरसेन मालेरी और मंगतरामजी लोटिया को प्रतिबोध देकर शुद्ध सनातन जैन धर्म के अनुयायी बनाया । सर्वप्रथम
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