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________________ धर्म प्रचार की गुप्त मंत्रणा ११५ भाइयों के बहकावे में आकर हमको मक्खन में से बाल की भांति अलग निकाल कर फेंक देंगे । तब हम को सदा के लिए निष्फलता का मुख देखना पड़ेगा! इस लिए नीति से काम करना अच्छा रहेगा। सबसे प्रथम इसी वेष में रहते हुए जनता में गुप्तरूप से अपने सद्विचारों का प्रचार आरम्भ करदेना चाहिये । अपने पास आने वाले गृहस्थों को शांति से समझाने का प्रयत्न करना चाहिये । उनको समझाते समय बड़ा धैर्य रखना चाहिये । यदि कोई व्यक्ति अपनी अन्धश्रद्धा के वशीभूत होकर अज्ञानवश कुछ अनुचित भी कहदे तो उसे शांति पूर्वक सहन कर लेना चाहिये । इसी प्रकार साधुवर्ग में भी इसी पद्धति का अनुसरण करना होगा। उनके साथ एकान्त में बातचीत करते हुए उनके फिरका वासित मनको बदलने का यत्न करना चाहिये । अपने साथी साधुओं से वादविवाद में उतरते हुए पूरा संयम रखने की आवश्यकता होगी। गृहस्थों के मनको पहले शंकाशील बनाने का यत्न करना होगा, उसके बाद जब उनके मनमें प्रस्तावित विषय को समझने की जिज्ञासा देखें तब उनको शांतिपूर्वक वास्तविक तत्त्व को समझाने का प्रयत्न करना चाहिये इस प्रकार शनैः शनैः इस कार्य को चालू रखना चाहिये । आज एक व्यक्ति हमारे विचारों को अपनावेगा तो कलको दूसरा भी तैयार हो जायेगा । एक गृहस्थ के विचार बदले तो दूसरा भी उसका अनुसरण करेगा। जैसे खबूजे को देखकर खर्बुजा रंग बदलता है इसी प्रकार उसे भी समझना चाहिये । एक श्रावक का श्रद्धान बदलने से उसके सहचारी वर्ग के विचारों को बदलाने में वह पहला श्रावक हमारा पूरा मददगार बनेगा। मानव स्वभाव के अनुसार ऐसा होना संभव ही नहीं किन्तु सुनिश्चित सा है । समाज और सम्प्रदायें इसी प्रकार बनीं या बना करती हैं । अपने इस पंथ में वेष का जो मान है, उससे उचित लाभ उठाने की हमें कोशिश करनी चाहिये । एक मात्र साधु के वेष पर श्रद्धा रखने वाली जनता को अपने सद्विचारों का अनुगामी बनाने के लिए हमारा यह वेष हमारे इस कार्य में रामबाण का काम देगा, ऐसी मेरी मान्यता है, आगे जैसा आप श्री को उचित लगे वैसा करें। श्री आत्मारामजी-वाहरे निहाल ! तूंने तो अाज सबको निहाल करदिया । तूं तो छोटा होता हुआ भो बुद्धि में सबसे मोटा निकला । गुदड़ी के लाल ! मैं तुम्हारे आज के इस उचित परामर्श पर तुम्हें साधुवाद देता हूँ । मैंने अपने मनमें इसी योजना के अनुसार कार्यारम्भ करने का निश्चय किया हुआ था जिसे तुमने अपने शब्दों में व्यक्त किया है । जब तुम अपनी योजना को सुना रहे थे तो मैं यह अनुभव कर रहा था कि क्या यह मेरे मन के भीतर बैठा हुआ मेरी मनोगत योजना को सुन तो नहीं रहा होगा ? अच्छा अब इस योजना के अनुसार कार्य करने के लिये सबको कटिबद्ध हो जाना चाहिये, मैं तो यहां से सरसे की ओर विहार करूगा और तुम सब इसी ध्येय को लेकर उचित क्षेत्रों की तर्फ प्रस्थान करो। जैसे कि साधु निहालचन्द ने कहा है उसके अनुसार कार्यारम्भ करते हुए धीरे २ लोकमत को अपने पक्ष में करने का यत्न करो । जिस किसी भी नगर में जाओ वहां की परिस्थिति और अनुकूल समय को देखते हुए कार्य का प्रारम्भ करो । सत्यनिष्ठा और आत्मविश्वास सफलता का मूल पाया है । फिर इसके साथ गुरुजनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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