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________________ - - ११४ - नवयुग निर्माता __ "तुम शक्तिशाली हो आत्माराम ! तुम्हें श्रमण भगवान महावीर के धर्म सन्देश को घर घर में पहुंचाना होगा । और पंजाब से निर्वासित प्रायः जैन धर्म को वहां फिर से बसाना होगा एवं उसे विपक्षियों के प्रबल प्रहारों से सुरक्षित रखने का यत्न भी करना होगा। जाओ ! अबोधपूर्ण जनता के हृदयाकाश में ज्ञानज्योति को प्रज्वलित करो ! मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है । तुम्हारे जैसे गम्भीर और प्रभावशाली विनीत शिष्य में अपनी ज्ञान विभूति को प्रतिष्ठित करके भारमुक्त होने का जो पुण्य अवसर मिला उससे मुझे बहुत सन्तोष प्राप्त हुआ, बस यही मेरी इच्छा थी जो कि पूर्ण हुई ! “इत्यादि" इसके उत्तर में मैंने भी करबद्ध और नतमस्तक होकर आपश्री के इस आदेश को पालन करने का वचन देकर वहां से प्रस्थान किया और देहली में आकर उनके आदेशानुसार कार्य का आरंभ भी कर दिया जो कि आजतक मन्दगति से चल रहा है । इसके बाद आपने फर्माया कि -भाइयो ! मैंने तुम लोगों को इसी कार्य के लिए तैयार किया है, बोलो ! अब तुम्हारी क्या इच्छा है ? ___ श्रीचम्पालालजी-महाराज ! इच्छा तो हमारी वही है जो आपकी होगी। हम सर्वेसर्वा आपके अनुगामी हैं और सदा रहेंगे परन्तु इस विषय में कुछ गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है । फिर, अपने गुरु श्री विश्नचन्दजी की ओर देखते हुए बोले-कहिये गुरु देव ! आपका इस विषय में क्या विचार है ? श्री विश्नचन्दजी-भाई ! यह बड़ी जटिल समस्या है पंजाब में इस वक्त अपने इस पंथ का ही बोलबाला है, चारों ओर इसी की तूती बोल रही है और अज्ञ जनता के हृदय पर हम लोगों की ओर से दिये गये अशास्त्रीय विचारों की इतनी गहरी छाप पड़ चुकी है कि उसको मिटाना यदि असम्भव नहीं तों अत्यन्त कठिन अवश्य है। श्री चम्पालालजी-तबतो हाथ से दीगई गांठ अब दांतों से खोलनी पड़ेगी ! श्री निहालचन्दजी (छोटे साधु)-महाराज ! यदि दान्तों से खुल जावे तो भी कल्याणकारी! इसके अनन्तर आपने महाराज श्री आत्मारामजी से हाथ जोड़ कर कहा-गुरुदेव ! इस विषय में मुझे एक योजना सूझी है, परन्तु कहते हुए मुझे संकोच होता है यदि आज्ञा हो तो अर्ज करू। श्री आत्मारामजी-कहो बीबा कहो ! इसमें संकोच की क्या आवश्यकता है। बौद्धिक विकास में छोटे बड़े की कोई गणना नहीं ! 'युक्तियुक्त वचोग्राह्य बालादपिसुभाषितम्" सारगर्भित युक्तियुक वचन तो सभी का उपादेय होता है। श्री निहालचन्दजी-यदि हम इस वेष का परित्याग करके अपने सद्विचारों का प्रचार करना श्रारंभ करेंगे तो हमको कभी सफलता प्राप्त न हो सकेगी। गुरुदेव ! अपने इस पंथ में १६ प्रतिशत तो मूर्ख हैं, वेष छोड़ देने से इन पर हमारे शास्त्रीय विचारों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ेगा । प्रत्युत ये लोग हमारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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