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धर्म प्रचार की गुप्त मंत्रणा
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श्री आत्मारामजी-अच्छा आज मैं अपने अन्तरंग विचारों को [जिन्हें प्रकट करने का आज तक अवसर नहीं मिला] तुम्हारे सन्मुख उपस्थित करता हूँ आशा है तुम उनके विषय में उचित परामर्श देते हुए उन्हें सफल बनाने के लिये मुझे पूरा सहयोग दोगे।
श्री विश्नचंदजी-हाथ जोड़कर-महाराज ! सहयोग देने का तो आप विचार ही छोडिये । यह तो समय बतलायेगा कि हम लोग आपश्री के आदेश का कहां तक पालन करते हैं ! अब रही परामर्श की बात, सो इस विषय में भी हम अपनी अल्पमति के अनुसार अपने विचार प्रकट करने में कोई संकोच नहीं करेंगे। श्रापश्री जो कुछ कहना चाहें दिल खोल कर कहें । और हम लोगों को अपने पूरे विश्वास पात्र समझकर कहें।
श्री आत्मारामजी-आप लोगों को यह तो विदित ही है कि मैंने अागरे में जिस ज्ञान विभूति के सम्पर्क से धर्म सम्बन्धी सत्य का प्रकाश प्राप्त किया और उस प्रकाश से आप लोगों के हृदयों को भी प्रकाशित करने का यथाशक्ति प्रयत्न किया, वह ज्ञान विभूति स्वर्ग सिधार गई। अब वह हमारे दरम्यान नहीं है । अथवा यं समझिये कि सद्भाग्यवश हमारे इस ढूंढक पंथ में मात्र एक ही प्रज्वलित होनेवाला ज्ञान प्रदीप था [जिससे हम सब को प्रकाश मिला, जो कि प्रकाश देकर समान होगया-बुझगया।
श्री विश्नचन्दजी-हां महाराज ! इसका तो हमें भी बहुत शोक है । मुनि श्री रत्नचन्दजी महाराज तो एक अमूल्य रत्न थे। ऐसे रत्न पुरुष का खोया जाना बहुत ही दुर्भाग्य की बात है परन्तु महाराज ! अब इसके लिये अधिक शोक करना भी व्यर्थ है, आप तो ज्ञानी पुरुष हैं सब कुछ जानते हैं जो आया है उसने एक दिन जाना भी अवश्य है।
श्री आत्मारामजी-भाई ! यह तो मैं भी समझता हूँ कि जन्म में मृत्यु का संकेत छिपा हुआ है और संयोग के साथ वियोग लगा हुआ है, तब जो अनिवार्य है उसके लिये अधिक शोकातुर होना कोई बुद्धिमत्ता नहीं, परन्तु मेरे कथन का यह अाशय नहीं जो कि तुम समझपाये हो।
श्री विश्नचन्दजी-तो महाराज ! आप फर्मायें कि आपका क्या आशय है ?
श्री आत्मारामजी-उनके पास से विदा होते समय हाथ जोड़कर प्रार्थना के रूप में मैंने कहा-कुछ सेवा फर्माओ गुरुदेव ! आपने मुझपर बहुत उपकार किया है । जब आपकी तरफ से कोई उत्तर न मिला तो मैंने यही शब्द फिर दोहराये और सानुरोध सेवा की प्रार्थना की, तब आपने फर्माया कि यदि तुम्हारी यही उत्कट भावना है तो लो सुनो सेवा,
इतना कहने के बाद सेवा के रूप में आपने जो फर्माया उसे कहते हुए मुझे संकोच तो बहुत होता है क्योंकि उसमें मेरी प्रशंसा का अंश अधिक है, परन्तु कहे बिना काम नहीं चलता इसलिये कहना पड़ता है। इसके बिना वस्तुस्थिति का भान नहीं होगा। आपने मुझे सम्बोधित करते हुए कहा
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