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________________ ११२ नवयुग निर्माता चतुर्मास वहीं पर किया। इस चतुर्मास में श्री विश्नचन्दजी और उनके शिष्य श्री चम्पालाल-हाकमराय और निहालचन्दजी आदि साधु भी ज्ञानाभ्यास के लिये आपके पास उपस्थित रहे । ___ इस ज्ञानाभ्यास में प्रसंगोपात जिन विषयों की शास्त्रीयचर्चा होती और उससे जो निष्कर्ष प्राप्त होता उसका संक्षेप से दिग्दर्शन ऊपर करा दिया गया है। चतुर्मास की समाप्ति से कुछ समय पहले एक दिन आपने विश्नचन्दजी आदि सभी साधुओं को बुलाकर एकान्त में कहा __ भाई ! आगरे से आने के बाद मैंने तुम लोगों को शास्त्राभ्यास कराते हुए जैन धर्म का शास्त्रानुसार जो स्वरूप और मन्तव्य है उसको अच्छी तरह से समझाने का यत्न किया है और तुम लोगों के हृदय में जो जो शंकायें थी उनका शास्त्रदृष्टि से सप्रमाण और सन्तोषजनक समाधान करने का भी प्रयास किया है । अब तुम बतलाओ कि तुम लोगों की जैनधर्म के शुद्ध स्वरूप के विषय में क्या धारणा निश्चित हुई है ? श्री विश्नचन्दजी आदि-महाराज ! यही कि जैन धर्म का जैनागमों द्वारा जो स्वरूप निश्चित होता है उसका हमारे इस ढूंढक मत से कोई मेल नहीं खाता । इसके सभी प्राचार विचार जैन शास्त्रों से विपरीत हैं और प्राचीन जैन परम्पर। में इसका कोई स्थान नहीं । आप श्री ने हमें जो कुछ समझाया है हम तो उसी को आचरणीय समझते हैं। ___ चम्पालालजी-महाराज ! आप हम लोगों से ऐसा क्यों पूछ रहे हैं यह मेरी समझ में नहीं आया ? क्या हम लोगों पर आप को भी कुछ अविश्वास है ? श्री श्रात्मारामजी-नहीं भाई ! अविश्वास की तो कोई बात नहीं, परन्तु कुछ ऐसी बातें भी हैं कि जिन पर कुछ परामर्श करना आवश्यक होगया है। श्री विश्नचन्दजी-गुरुदेव ! आप हम लोगों को सर्वथा अपना समझे । हम अपना तन और मन सब आपके चरणों में न्योछावर कर चुके हैं श्राप जो कुछ भी सेवा फर्मा हम उसे पूरी ईमानदारी से बजा लाने को तैयार हैं इसमें आपको अणुमात्र भी सन्देह नहीं होना चाहिये। श्री निहालचंदजी-(छोटे साधु) कृपानाथ ! आप यह बतलाने की कृपा करें कि किस दिन इस शास्त्रबाह्य पंथ की वेषभूषा को त्यागकर शुद्ध सनातन जैन परम्परा के शास्त्रीय साधु वेष से सुसज्जित होने का हमें सौभाग्य प्राप्त होगा? हाकमरायजी-भाई ! तुमने तो एक नया ही प्रकरण बीच में छेड़ दिया, पहले तुम महाराज श्री क्या फर्माते हैं, इसे तो सुन लो ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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