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________________ अध्याय १३ धर्म प्रचार की गुप्त मन्त्रणा -* * विक्रम संवत् १६२१ के ज्येष्ठ मास में जब आप रायकोटला से जगरावां में आये तो वहां आपको अपने विद्यागुरु श्री रत्नचन्दजी के स्वर्गवास का समाचार मिला। इस समाचार से आपके हृदय को बहुत ठेस लगी। जिस समय आपको यह समाचार सुनाया तो सुनते ही आप अवाक् से रह गये । और कुछ क्षणों के बाद बोले कि क्या सचमुच ही गुरुदेव स्वर्ग सिधार गये ? क्या आप इतने दिन मेरे ही लिये जीवित रहे ? इतना कहते ही आप का गला भारी होगया और नेत्र सजल हो उठे । अपने आसन्नोपकारी गुरुदेव के सतत वियोग से उत्पन्न होने वाली आन्तरिक व्यथा एकदम असह्य हो उठी, उसे हृदय में छिपाये रखने का आपने बहुत यत्न किया परन्तु वह छिपी न रह सकी, आंखों ने उसे मार्ग दिया और बाहर निकल गई । इतने में आपको संसार की असारता और क्षण भंगुरता का ध्यान आया जिससे शोक निमग्न आपका हृदय शोक रहित होकर फिरसे कर्तव्य निष्ठा की ओर प्रस्थान करने की सोचने लगा। श्राप जैसे संसार त्यागी संयमशील महापुरुषों के हृदय में, शोक या विषाद का उद्भव होना, संभव है पाठकों को कुछ शंकाशील बसवे, परन्तु यह कोई अस्वाभाविक नहीं, गुरु शिष्य के सम्बन्ध का जो आदर्श है उसमें प्रतिबिम्बित होने वाले विशुद्ध अनुराग की भूमिका पर खड़े होकर देखने और विचार करने से यह सब कुछ नगण्य सा प्रतीत होगा। क्या श्रमणभगवान महावीर स्वामी के मोक्ष पधारने पर गौतम स्वामी ने रुदन नहीं किया । एवं विषादपूर्ण शब्दों में अपने प्रशस्त अनुराग को व्यक्त नहीं किया । तो क्या गौतम स्वामी के रुदन या विषाद को अनुचित कहें व मानेंगे, जैसे उनके शोक या विषाद का परिणाम मोक्ष का हेतु बना, उसी प्रकार आपका शोक और विषाद भी मुनि श्री रत्नचन्दजी की अन्तिम भावना को मूर्त स्वरूप देने की प्रेरणा को सक्रिय बनाने का सफल साधन बना। जगरावां से विहार करके आप लुधियाने पधारे और वहां के श्री सेढमल और गोपीमल नाम के दो गृहस्थों को अजीव पन्थ के श्रद्धाजाल से छुड़ाकर वहां से विहार करके मालेरकोटला पधारे और १६२१ का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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