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________________ - -- - १०४ नवयुग निर्माता भव अडवी निघड़ियाणं दवत्थो चेव आलंबो ॥ ४ ॥ जिणपूयणं तिसंझं कुणमाणो सोहएड सम्मत्तं । तित्थयर नामगुत्त पावइ सेणिय नरिंदच ॥ ५ ॥ जो पुएइ तिसंझ जिणंदरायं सया विगय दोसं । सो तइय भवे सिज्झइ, अहवा सत्तमे जम्मे ॥ ६ ॥ ___ भावार्थ-शुभ योग में कारण भूत होने से जिन प्रतिमा भी जिनके समान ही है, अतः उसकी भक्ति से भव्यात्मा को साक्षात् जिनेन्द्र देव की पूजा का ही फल प्राप्त होता है। (१) परिणाम विशुद्धि के लिये शुभाशुभ ध्यान की दृष्टि से जिन प्रतिमा एक स्वच्छ दर्पण के समान है (२) वह सम्यक्त्व को निर्मल करने वाली और सत्य प्रभव शुभ योग की जननी एवं संसार रूप दावानल दग्ध भव्य जीवों के पापों का नाश करने वाली है (३) भव रूप संसार अटवी में भटकने वाले और षट् काय की हिंसा से आरम्भ में आसक्त ऐसे गृहस्थों के लिये यह द्रव्य स्तव अर्थात् जिनेन्द्र देव की पूजा ही आलम्बन भूत है (४) इसलिये निरन्तर तीन काल में जिनेश्वर देव की पूजा करने वाले श्रेणिक राजा की तरह जो श्रद्धालु गृहस्थ जिनेन्द्र देव की पूजा करता है वह सम्यक्त्व को निर्मल करता है और तीर्थकर गोत्र को प्राप्त करता है (५) तथा जो गृहस्थ प्रतिदिन सर्व दोष रहित श्री जिनेश्वर देव की भाव सहित पूजा करता है वह तीसरे अथवा सातवें.या आठवें भव में सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है । (६) ____ पूज्य हरिभद्र सूरि जैसे महान आगम वेत्ता तटस्थ विद्वान जिस वस्तु को इन शब्दों में व्यक्त करें वह पागम सम्मत न हो यह तो कभी कल्पना में भी नहीं आ सकता परन्तु हमारी सम्प्रदाय के मुनि महाराज तो इन आचार्यों के नाम से भी कोसों दूर भागते हैं, और मैंने जो यहां इनके नाम और ग्रन्थों के उल्लेख आदि का जिकर किया है वह केवल तुम लोगों को जानकारी प्राप्त करने के लिये किया है । तब खासकर इसी विषय में एकमात्र आगमों की दुहाई देने वाले अपने इन भाइयों के अशान्त मन को शान्त करने के लिये अब जरा आगमों की ओर भी ध्यान दे लेना चाहिये । (१) श्री ज्ञाता सूत्र में सती द्रौपदी की पूजा विधि का अधिकार है जो कि तुम्हारे वाचने में आया ही होगा, वहां पर जो यह लिखा है कि-"राजकन्या द्रौपदी ने सूर्याभदेव की भांति जिन प्रतिमा का पूजन किया अर्थात जिस प्रकार जिस विधि से सिद्धायतन नत जिन प्रतिमाओं का पूजन सूर्याभ ने किया उसी भांति उस विधि से यहां पर द्रौपदी ने जिन प्रतिमा की पूजा की 3 इस उल्लेख से प्रतिमा का पूजन केवल चरितानुवाद $ ज्ञातासूत्र गत मूल पाठ और उसका भावार्थ इस प्रकार है"तएणं सा दोवइ रायवरकन्ना जेणेषमज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता मज्जणघरं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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