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मूर्तिवाद का शास्त्रीय निर्णय
रूप न रहकर विधेय रूप बन जाता है । चरित्र गत जिस कर्तव्य का दूसरों के लिये उदाहरण रूप से निर्देश किया जाय वह चरित मात्र न रहकर विधेय - कर्तव्य रूप हो जाता है । सूर्याभदेव का अधिकार राजप्रश्नीय सूत्र में है । ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी की पूजा विधि के लिये राजप्रश्नीयसूत्र गत सूर्याभदेव की पूजाविधि को दृष्टान्त रूप से उपस्थित करने का अर्थ ही मूर्ति पूजा अर्थात् जिनप्रतिमा की पूजा को विधेय विधि-निष्पन्न प्रमाणित करना है ।
अच्छा अब राजप्रश्नी की ओर ध्यान दीजिये ! जिनमूर्ति की उपासना तथा पूजा के लिये राजप्रश्नीय सूत्र सबसे अधिक महत्व रखता है । इसके कतिपय पाठों से मूर्तिपूजा पर जितना उज्ज्वल और विशद प्रकाश पड़ता है उसको देखते हुए शायद ही कोई विचारशील व्यक्ति मूर्तिपूजा की विधेयता-विधि - निष्पन्नता या आगम विहितत्व से इन्कार कर सके । उनसे प्रस्तुत विषय में तीन बातों का अच्छी तरह से निश्चय हो जाता है - ( १ ) जिन मन्दिर और जिन प्रतिमाओं का अस्तित्व ( २ ) पूजा का निर्देश और (३) पूजा की विधि प्रक्रिया । इन तीनों बातों के निश्चायक उक्त सूत्र गत मूलपाठ इस प्रकार हैं
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(१) क. - " सभाए गं सुहम्माए उत्तर पुरच्थिमेणं एत्थणं महेगे सिद्धायतणे पण्णत्ते XXX तस्सणं सिद्धायतणस्स बहुमदेसमाए एत्थणं महेगा मणिपेढ़िया पण्णत्ता X X तीसेणं मणि
अपविसई गुपविसइत्ता सहाया कयवलिकम्मा कयकोउ मंगल पायछित्ता सुद्धा पावेसाई मंगलाई वत्थाई परिहियाई, मज्जरणवरा पडिनिक्खमइ पड़िनिक्खमइत्ता जेणेव जिरणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता जिणघरं अणुपविसइ गुपविसइत्ता जिरणपड़िमाणं आलोयइ परणामं करेइ करेइत्ता लोमहत्थयं परामुसइ परामुसइत्ता एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमा अच्चे अचेताव भारिणयव्वं जाव धूवं डहइ डहइत्ता वामं जाणुं अंचेइ अंचेइत्ता दाहिणं जाणं धर वेिसइ णिवेसइत्ता तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि गिवेसेइ निवेसइत्ता इसि पच्चन्नमइ करयल जवा कट्ट ू एवंवयासी रामोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जावसंपत्ताणं वंदइ नमसइ जिणधराओ डिक्खिम" [ समिति वाला पृ० २१० ]
भावार्थ- वह राजकन्या द्रौपदी स्नान घर में प्रविष्ट होकर स्नान करने के बाद शुद्ध वस्त्र पहनकर जिन मन्दिर में आती है वहां जिन प्रतिमा को देखकर प्रणाम करती है, प्रणाम करने के बाद मयूरपिच्छ से जिन प्रतिमा का प्रमार्जन करती है, तदनन्तर जैसे सूर्याभ ने जिन प्रतिमा का अर्चन-पूजन किया उसी प्रकार विधिपूर्वक पूजन करती है स्नान से लेकर धूप देने पर्यन्त । फिर वाम जानु-घुटने को ऊंचा रख और दक्षिण थिवी पर स्थापन करके तीन बार अपने मस्तक को भूमि के साथ लगाती हुई हाथ जोड़कर मस्तकन्यस्त अंजलि से "मोत्थु अरिहंताणं भगवंताणं" आदि शक्रस्तव के द्वारा प्रभु प्रतिमा को वन्दना नमस्कार करती है इत्यादि । ”
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