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मूर्तिवाद का शास्त्रीय निर्णय
श्री विश्नचन्दजी - भाई ! वहां तो जो कुछ सुनोगे वह सब नया ही होगा, आज तक जो कुछ सुना वह सब हमारे लिये नया ही तो है । हमारा यह पूर्ण सद्भाग्य है जो कि ऐसे गुरुजनों का पुण्य सहयोग प्राप्त हुआ ।
अगले दिन समय से कुछ पहले ही सब आपके स्थान पर पहुँच गये और विधि पूर्वक वन्दना नमस्कार करके आपके सन्मुख खड़े हो गये । आपने सबको सुखसाता भी पूछी और बैठने की आज्ञा देते हुए स्वयं भी अपने आसन पर विराजमान होगये । कुछ इधर उधर की विनोदपूर्ण वातें करने के बाद आपने फर्माया कि आजकी ज्ञान गोष्ठी में हमने आगमों के आधार पर जिन - प्रतिमा की पूजा विधि पर विचार करना है और देखना है कि जिस प्रकार मूल आगमों से जिन प्रतिमा की सत्ता और पूज्यता प्रमाणित होती है उसी प्रकार उसकी पूजा विधि का भी आगमों में कोई उल्लेख है याकि नहीं ।
यूं तो -" धूवं दाऊण जिनवराणं" । [ धूपं दत्वा जिनवरेम्य: ] इस आगम पाठ के आधार पर जैन परम्परा के लब्ध प्रतिष्ट १४४४ ग्रन्थों के निर्माता तटस्थ मनोवृत्ति के महान् विद्वान् परमागमवेत्ता आचार्य प्रवर श्री हरिभद्रसूरि ने तीर्थंकर प्रतिमा को तीर्थंकर के तुल्य बतलाते हुए उसकी पूजा, पूजाविधि और पूजा के फल आदि पर अपने ग्रन्थों में जो उल्लेख किया है उसको देखते हुए कोई भी विचारशील विद्वान् उसकी पूजाविधि को भी आगम सम्मत होने में सन्देह नहीं कर सकता ।
सम्बोध प्रकरण के देव पूजाधिकार में पूज्य हरिभद्रसूरि लिखते हैं
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तम्हा जिण सारिच्छा, जिणपडिमा सुद्ध जोय कारणया । तभत्तिए लभए जिणंद पूया फलं भव्वो ॥ १ ॥ जम्हा जिणारा पड़िमा, अप्प परिणाम दंसण निमित्तं । आयंस मंडलाभा सुहासु कारण दिडीए ॥ २ ॥ सम्मत्त सुद्ध करणी जगणी सुहजोग सच्च पहवाणं । निद्दलिनी दुरियाणं भव दव दड्ढ भवियाणं ॥ ३ ॥ आरंभ पसत्ताणं गिहीण छज्जीव वह विरयाणं ।
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+ [राज प्रश्नीय सूत्र पृ० २५५] इस उल्लेख में जिन प्रतिभा को जिनवर के नाम से अभिहित किया गया है। इसका अर्थ है - "जिनेन्द्रदेव को धूप देकर" श्रागम | के उल्लेख में - "जिनप डिमाणं" न कहकर जो "जिनवराणं" कहा है उससे ज्ञात होता है कि श्रागम निर्माता महर्षियों को तीर्थकर और तीर्थकर प्रतिमा में अभेद भाव ही इष्ट है, श्रथच दूसरे शब्दों में उनके मतानुसार तीर्थंकर मूर्ति की पूजा यह तीर्थंकर देव की ही पूजा है।
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