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________________ १०२ नवयुग निर्माता चैत्य - तीर्थंकर प्रतिमायें हमारे पंथ के मुनिराजों की दृष्टि में भले ही वन्दनीय या पूजनीय न हों, परन्तु इससे उनकी सत्ता और पूज्यता में अणुमात्र भी क्षति नहीं पहुँचती । उनके आगम सिद्ध लोकव्यापी प्रचार का केवल कथन मात्र से कभी अपलाप नहीं किया जा सकता। इतना प्रवचन करने के बाद सन्मुख बैठे हुए विश्नचन्दजी आदि साधुओं को सम्बोधित करते हुए आपने कहा- कहो भाई ! जिन प्रतिमा के आगम विहित सिद्ध होने में अब तो कोई कसर नहीं रही ? यदि कोई कसर है तो बोलो ? श्री विश्नचन्दजी आदि सब साधु हाथ जोडकर - नहीं गुरुदेव ! कोई कसर बाकी नहीं रही ! आपने तो हमारे कई जन्मों के पाप धो डाले ! जिन प्रतिमा की निन्दा से कलुषित हुए हृदयों को जो अपूर्व शान्ति सन्तोष मिला है उसे व्यक्त करने में हम असमर्थ हैं । श्री आत्मारामजी - तुम्हारे इस विनय प्रदर्शन को बहुत २ साधुवाद ! अच्छा अब पधारो ! समय बहुत हो चुका, कल की ज्ञान गोष्टी में मैं तुम्हें मूर्ति पूजा और पूजा की विधि के परिचायक कुछ अन्य आगम पाठों का परिचय कराने का यत्न करूंगा । 'विश्नचन्दजी आदि - हाथ जोड़कर - बहुत अच्छा गुरुदेव ! इतना कहकर वन्दना करने के बाद वहां से अपने स्थान की ओर चल दिये पूजा विधि के श्रवण की उत्सुकता को साथ लेकर । स्थान पर पहुंचने के बाद सब ने आहार किया और कुछ समय विश्राम करके सुने हुए विषय को न करने के लिये सब मिलकर परावर्तन करने लगे । श्री विश्नचन्दजी अपने शिष्य वर्ग से कहो भाई ! तुमने कल और आज जिन प्रतिमा के सम्बन्ध में महाराज श्री आत्मारामजी से जो कुछ सुना उससे तुम्हारे मनमें क्या धारणा निश्चित हुई ? चम्पालाल और हाकमराय - यही कि वह आगम सिद्ध है और अतएव अभिनन्दनीय है, अब उसकी पूज्यता में सन्देह करना सरासर आत्मवंचना है ! हां मूर्तिपूजा का मूल आगमों में इतना स्पष्ट उल्लेख होगा इसका तो हमें स्वप्न में भी भान नहीं था। गुरुदेव ! अधिक क्या कहें हम तो आज अपने अन्दर किसी नये ही प्रकाश का अनुभव कर रहे हैं । श्री विश्नचन्दजी - बस मैं तो तुम लोगों का ही मानसिक सन्तोष चाहता था ! और मैं तो पहले से सर्व प्रकार से उनका हो चुका हूँ। अच्छा अब कल की प्रतीक्षा करो जो बात उन्होंने कही है उसके जानने के लिये तो मन अभी से अधीर हो रहा है। वही आगम में पूजा विधि की बात । कहो सच है न ? दोनों - हां महाराज ! बिलकुल सच ! मूल आगमों में पूजा की विधि का उल्लेख यह तो सर्वथा नया ही शब्द हमारे सुनने में आया जिसकी हम लोग कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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