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________________ नवयुग निर्माता से प्रतिष्ठित करके पूजते हैं । इस विचार के अनुसार जैन सम्प्रदाय से भिन्न वैदिक आदि सम्प्रदायों के परिव्राजक आदि साधु और जैनमत से भिन्न अन्य मत के देवों की प्रतिमाओं को वन्दना नमस्कार करना मुझे नहीं कल्पता, यह आनन्द श्रावक के अभिग्रहगत "अन्न उत्थिए वा अन्नउत्थिय देवयाणि वा” इस पाठ का परमार्थ निष्पन्न होता है। तब अर्थापत्ति प्रमाण से जैन मत के साधुओं और जैन मत की देव प्रतिमाओं को वन्दन नमस्कार करना मुझे कल्पता है यह अनायास ही सिद्ध हो जाता है, तात्पर्य कि जिसे अन्यमत के साधु और अन्यमत की देवप्रतिमायें अवन्दनीय हैं उसके लिये स्वमत के साधुओं और स्वमत की देव प्रतिमाओं को वन्दना नमस्कार का विधान न करने पर भी वह स्वयं अपने आप ही निष्पन्न हो जाता है ! यदि कुछ और स्पष्ट शब्दों में कहा जाय तो आनन्द श्रावक के इस अभिग्रह का आशय यह है कि "मैं आज से स्वमत के साधुओं और स्वमत के देवों-देवप्रतिमाओं के सिवा और किसी को (देव और गुरु बुद्धि से) वन्दना नमस्कार नहीं करूगा । अब इसके आगे के पाठ पर भी ध्यान दें ? । आगे के पाठ में-"अन्न उत्थिय परिग्गहियाणि-अन्य यूथिक परिगृहीतानि" यह “अरिहंत चेइयाणि-अर्हच्चैत्यानि” का विशेषण है । इन विशेष्य और विशेषण रूप दोनों का अर्थ होता है अरिहंत के वे चैत्य जिन्हें अन्य सम्प्रदाय वालों ने ग्रहण अर्थात् अपने देव के नाम से अपना लिया हो, तात्पर्य कि तीर्थंकर देव के वे चैत्य (प्रतिमायें जिन्हें कि अन्य मतानुयायी अपने उपास्य देव के (8) इसके लिये मनुस्मृति के निम्नलिखित श्लोक और उनकी कुल्लूक भट्ट की व्याख्या को देखें यथा (क) नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्यात् देवर्षि पितृतर्पणम् । देवताभ्यर्चनं चैव, समिदाधानमेवच ।।२||१७६।। कल्लूकभट्ट-प्रत्यहं स्नात्वा देवर्षि पितृभ्यः उदकदानं, प्रतिमादिषु हरिहरादिदेव पूजनम् , सायं प्रातश्च ___ समिद्धोमं कुर्यात् ॥ अर्थात् - प्रतिदिन स्नान करके देवों ऋषियों और पितरों का तर्पण करना एवं हरिहरादि-विष्णु और शंकर आदि देवों का, पाषाणादि की प्रतिमा में पूजन करना और प्रात: सायं हवन करना चाहिये । (ख) देवतानां गुरो राज्ञः ......... (४ | १३०) ___ कल्लू-देवतानां पाषाणादिमयीनाम् । (ग) देव ब्राह्मण सानिध्ये. .. ........(८ । ८७) कु०-प्रतिमादि देवता ब्राह्मण सन्निधाने । इन ऊपर के उद्धरणों में पाषाणमयी देवप्रतिमा में ही देव या देवता शब्द का व्यवहार किया है तात्पर्य कि ऊपर के उद्धरणों में देव या देवता शब्द से सर्वत्र पाषाणादिरूप देव प्रतिमा का ही ग्रहण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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