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मूर्तिवाद का शास्त्रीय निर्णय
पर पहुंचने के बाद पहले कभी न सुनी हुई बातों का परावर्तन करने लगे और महाराज आत्मारामजी की प्रतिभा की भूरि २ प्रशंसा करने के साथ २ अपने सद्भाग्य की भी सराहना करने लगे।
दूसरे दिन नियत समय से आधा घंटा पहले ही तैयार होकर आपके पास पहुंच गये और विधि पूर्वक वन्दना नमस्कार करके यथाधिकार अपने स्थान पर बैठ गये, इधर आपने भी सबको सुखसाता पूछकर अपना आसन ग्रहण किया।
श्री आत्मारामजी–विश्नचन्दजी आदि उपस्थित सब साधुओं को सम्बोधित करते हुए बोलेभाई ! कल मैंने मूर्ति पूजा सम्बन्धी जिन आगमपाठों का जिकर किया था आज वे अागम पाठ तथा उनके अर्थों पर अपने विचार करना है तुम लोगों को यह तो पता ही है कि उपासकदशा नाम के सातवें अंग सूत्र में आनन्द श्रावक का अधिकार आता है । आनन्द श्रावक श्रमण भगवान महावीर स्वामी के सन्मुख उपस्थित होकर कहता है
"नो खलु मे भंते कप्पा अज्जप्पभिई अण्ण उत्थिए वा अण्ण उत्थिय देवयाणि वा अन्न उत्थिय परिग्गाहयाणि अरिहंत चेइयाणि वा वंदित्तए वा णमंसित्तए वा" इत्यादि
[समिति वाला पृ. १२] हे भगवन् ! आज से मुझे अन्यमत के-जैनमत से भिन्नमत के साधुओं को, अन्य मत के देवों हरिहरादि को तथा अन्यमतवालों ने जिन्हें ग्रहण कर लिया हो ऐसे अरिहंत के चैत्यों को वन्दना नमस्कार करना नहीं कल्पता इत्यादि । यह तो है उपासक दशा के इस पाठ का सामान्य अक्षरार्थ, अब इसका परमार्थ सुनिये
___ आनन्द श्रावक के अभिग्रह सम्बन्धी इस पाठ में व्रतधारी सम्यग्दृष्टि श्रावक के लिये गुरुबुद्धि) और देवबुद्धि से जो २ अवंदनीय है उसका उल्लेख किया गया है । इसमें अन्यमत के धर्माचार्य, अन्यमत के उपास्य देवता और अन्यमत वालों ने जिनको अपने उपास्य देव के नाम से स्वीकार कर लिया हो ऐसे अरिहंत के चैत्य इन तीन का निर्देश किया है अर्थात् इन तीनों को वन्दना नमस्कार आदि करने का निषेध है । यहां पर अन्यमत के देवताओं से अन्यमत के उपास्य हरिहरादि देवों की प्रतिमायें अभिप्रेत है वैदिक सम्प्रदायमें देवता शब्द का व्यवहार प्रायः पाषाणमयी प्रतिमा में ही किया गया देखा जाता है (१) तब"अन्न उत्थिय देवयाणि-अन्य यूथिक दैवतानि" "अन्यमत के देवता” इसका अर्थ हुआ जैन मत से भिन्न वैदिक मत के उपास्य हरिहरादि देवों की प्रतिमायें जिन्हें वे ब्रह्मा, विष्णु, शिव और स्कन्दादि देवों के नाम
छाया-न खलु मे भगवन् ! कल्पते अद्यप्रभृति अन्य यूथिकान अन्य यूथिक देवतानि वा अन्य यूथिक
परिगृहीतानि अहेच्चैत्यानि वा वन्दितुवा नमस्यितुवा "इत्यादि।
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