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________________ ६४ नवयुग निर्माता जिन प्रतिमा की उपासना या मूर्तिपूजा को आगम बाह्य घोषित करते हुए मूर्तिपूजा के अनुयायियों को लक्ष्य रखकर बड़ी गर्वोक्ति से यह कहते हैं कि "आगमों में यदि मूर्तिपूजा का विधान है तो उसके लिये कोई आगम विधि वाक्य बतलाओ ? विचारे बतलायें भी कहां से जब कि आगमों में उसकी गन्ध तक भी नज़र नहीं ती । भला इस प्रकार की हिंसा प्रधान क्रियाओं की शास्त्रकार कभी आज्ञा दे सकते हैं ? कभी नहीं ।" इन धर्म नेताओं की इस प्रकार ऊंचे स्वर में की गई गर्वपूर्ण घोषणा के आगे उनके सामने बैठी हुई अबोध जनता एक दम प्रभावित हो उठती है और उसका परिणाम यह होता है कि देव पूजा जैसे परम आवश्यक शास्त्रविहित चार के अनुष्ठान से वे वंचित रह जाते हैं । अतः मूर्ति उपासना को आगमविहित प्रमाणित करने के लिये सर्व प्रथम आगमों की वर्णन शैली का ज्ञान प्राप्त कर लेना तुम लोगों के लिये नितान्त आवश्यक है । तुम लोगों ने न्यूनाधिक रूप में आगमों का अवलोकन तो किया ही है, तुमने देखा होगा कि में गृहस्थ धर्म का जो उल्लेख है वह प्रायः अनुवाद रूप में ही किया गया है। जिस प्रकार साधु साध्वी के लिये " को पई" आदि वाक्यों के द्वारा विधि - निषेधरूप से उनके श्राचारों का आगमों में निर्देश किया गया है, वैसा श्रमणोपासक - श्रावक धर्म के लिये विधि-निषेधरूपेण उल्लेख उनमें देखा नहीं जाता । गृहस्थ धर्म के नियमों का उल्लेख तो उनमें सर्वत्र अनुवाद रूप में ही किया गया देखा जाता है । इसका कारण यह है कि निर्ग्रन्थप्रवचन में मुख्यता मुनिधर्म को ही प्राप्त है गृहस्थधर्म या गृहस्थ के धार्मिक आचारों का तो उसमें अनुषंगिक वर्णन है वह भी प्रायः चरितानुवाद रूप में ही । अच्छा मैं तुम्हें यह बतलाने का यत्न करूंगा कि आगम ग्रन्थों में जिन प्रतिमा या मूर्तिपूजा का समर्थन कहां और किस रूप में है । यह तो निर्विवाद ही है कि आगमों में मूर्ति उपासना के विरुद्ध कोई उल्लेख नहीं है और विधायक उल्लेखों के विषय में जो विवाद है उसका निराकरण तो चैत्य शब्द के जिन प्रतिमा अर्थ प्रमाणित हो जाने से ही हो जाता है । जैसा कि मैंने तुम को प्रथम बतलाया जब कि आगम प्रयुक्त चैत्य शब्द का जिनप्रतिमा या जिनमन्दिर अर्थ आगमसम्मत और प्रभाण- पुरस्सर है तो तदाश्रित जिनप्रतिमा या मूर्तिपूजा की विहितता के लिये कोई अलग विधि वाक्य ढूंढने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती । आगमों अर्थात् अंग और उपांगादि में प्रतिमा सम्बन्धी जितने भी पाठ विद्यमान हैं वे विधिरूप या अनुवादरूप कुछ भी हो परन्तु उन पर से मूर्ति उपासना का समर्थन भलीभांति होता है। प्रथम बतलाई गई आगमों की जो बर्णन शैली है उसका विचार करते हुए जिन प्रतिमा से सम्बन्ध रखने वाले आगम पाठों का यदि निष्पक्ष भाव से पर्यालोचन करें तो ज्ञात होगा कि वे मूर्तिपूजा की विधेयता - विधिनिष्पन्नता के पूरे २ समर्थक हैं । परन्तु आज समय अधिक हो गया है इसलिये बाकी रहे विषय का विचार अपने कल पर रक्खेंगे । कल आप लोग जरा जल्दी पधारें ताकि यह प्रकरण समाप्त हो जावे । इसके उत्तर में विश्नचन्दजी आदि सबने हाथ जोड़ कर तहत वचन कहकर वन्दना की और प्रसन्नचित्त से सब अपने स्थान को चल दिये । स्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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