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________________ मूर्तिवाद का शास्त्रीय निर्णय ६३ तनम्” यह लिखने की आवश्यकता प्रतीत हुई अर्थात् ये देवायतन, जिनायतन नहीं किन्तु व्यन्तरायतन-यक्षायतन हैं । इसी हेतु से पूज्य अभयदेव सूरि ने यहां के चैत्य को व्यन्तरायतन समझने का संकेत किया है। इसके अतिरिक्त आगमों में जहां केवल "चेइयाई या अरिहंत चेइयाई” इत्यादि पाठ उपलब्ध होते हैं उनका तो आगम सम्मत अर्थ जिन प्रतिमा या जिन मन्दिर ही प्रमाणित होता है । यथा श्री भगवती सूत्र में-"तहिं चेइयाई वन्दइ-तत्र चैत्यानि वन्दते" [वहां के चैत्यों को वन्दना करता है । "इहं चेइयाई वंदइ-इह चैत्यानि वन्दते” [यहां के चैत्यों को वन्दना करता है ] उपासकदशा में-"अन्नउत्थिय परिग्गहियाइं अरिहंत चेइयाई-अन्ययूथिकपरिगृहीतानि अर्हच्चैत्यानि" [अन्यमत परिगृहीत अरिहंत के चैत्यों को] औपपातिक सूत्र में-"णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंत चेइयाणि वा-नान्यत्र अर्हतः अर्हच्चैत्यानि वा" [अरिहंत और अरिहंत के चैत्यों के सिवा और किसी को वन्दना करनी नहीं कल्पती । ___ इत्यादि आगम पाठों में प्रयुक्त हुए चैत्य शब्द का सिवाय जिन प्रतिमा के न तो और कोई अर्थ सम्भव है और ना ही प्रकरणसंगत और आगमसंमत है तथा किसी भी प्राचीन आचार्य ने इसके सिवाय और कोई अर्थ किया भी नहीं । इसलिये आगम गत इन पाठों में उल्लेख किये गये चैत्य शब्द के प्रमाण सिद्ध जिन प्रतिमा अर्थ के अतिरिक्त अन्य किसी अर्थ की कल्पना करना या तो निरी मूर्खता है और या कोरा दुराग्रह इसके सिवा और कुछ नहीं । इस प्रकार प्रामाणिक शास्त्रीय दृष्टि से आगमगत चैत्य और जिन चैत्य के यथार्थ अर्थ का निर्णय हो जाने के बाद अब प्रस्तुत विषय से घनिष्ट सम्बन्ध रखने वाली आगमों की वर्णन शैली का भी तुम लोगों को ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये। श्री विश्नचन्दजी- हां महाराज ! फरमाइये । यह तो हमारे लिये बिलकुल नई बात है, हम लोगों को तो इस बात की कभी कल्पना भी नहीं हुई कि आगमों की वर्णन शैली में भी कोई खास विशेषता है। चम्पालालजी-महाराज ! हो भी कहां से जब कि हम बैठे ही ऐसे स्थान में हैं कि जहां प्रकाश की किरण को अन्दर प्रविष्ट होने के लिये कोई मार्ग ही नहीं । केवल तोते की तरह आगमों के शुद्धाशुद्ध पाठ को रट कर उसका मनमाना अर्थ कर लेना ही तो हमारे ज्ञान की इति श्री है । यह सुन कर सब हंस पड़े और महाराज श्री भी कुछ मुस्कराये और बोले भाई ! प्रभु का ज्ञान अनन्त है, छद्मस्थ अवस्था में रहा हुआ आत्मा अपने क्षयोपशम के अनुसार उसका ग्रहण करता है, तुम लोग अन्धकार पूर्ण वातावरण से निकल कर अब प्रकाश की ओर कदम बढ़ाने लगे हो, तुम को वह स्थान भी अवश्य उपलब्ध होगा जिसमें चारों ओर प्रकाश की किरणें फैल रही हैं । एक दिन मैं भी तुम्हारी तरह उसी स्थान में बैठा हुआ था जिसका निर्देश भाई चम्पालाल ने किया है। अच्छा अब अपने प्रस्तुत विषय का विचार करें । अपने मत या पंथ का नेतृत्व करने वाले साधु मुनिराज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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