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________________ ६२ नवयुग निर्माता भगवती सूत्र में पूर्णभद्र को यक्षेन्द्र के नाम से निर्दिष्ट किया है * इसके अतिरिक्त इस पाठ से यह भी सिद्ध होता है कि उस समय अंगसूत्रों के रचना काल में यक्षों की - व्यन्तर देवों की पूजा का जनता में विशेष प्रचार था, उनके अत्यन्त प्राचीन मंदिर थे और उनमें यज्ञादि देवों की मूर्तियें प्रतिष्ठित थीं, लोग उनकी सेवा पूजा बड़ी श्रद्धा से करते थे, तथा उनको इन देव मूर्तियों में प्रत्यक्ष फल देने का विश्वास था, एवं धन पुत्रादि ऐहिक सुख प्राप्ति के निमित्त वे उनकी भक्ति करते और उनको वह प्राप्त भी हो जाता । अर्जुनमाली की स्त्री के साथ बलात्कार करने वालों का मुद्गरपाणी यक्ष देव के द्वारा किस तरह से प्रतिकार हुआ, तथा सुलसा की भक्ति से - [ जो कि हरिरोगमेषी देव की प्रतिमा बनाकर उसकी निरन्तर पूजा करती थी ] प्रसन्न होकर हरिणेगमेषी देव ने उसके तिन्दूपन -मृत वत्सायन को कैसे दूर किया इसका वर्णन श्रन्तकृद्दशा नाम के अंगसूत्र में बहुत अच्छीतरह विस्तार पूर्वक किया है । वह सूत्र निकाल कर तुमने स्वयं देख लेना या मेरे पास लाना, मैं तुमको उसमें से निकाल कर स्वयं बतला दूंगा । प्राचीन टीकाकारों ने भी इसी अर्थ की प्ररूपणा की है। वे इसे व्यन्तरायतन के नाम से उल्लेख करते हैं उनका अभिप्राय इन देव मन्दिरों या यक्ष मन्दिरों को जिन मन्दिरों से विभिन्न बोधित करने का है । इसलिये नवांगी टीकाकार पूज्य अभयदेवसूरि यहां पर प्रयुक्त हुए चैत्य शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखते हैं "चितेर्लेप्यादि चयनस्य भावः कर्मवेति चैत्यं संज्ञा शब्दत्वात् देवविम्वं तदाश्रयत्वात् तद्गृहमपि चैत्यं तच्चेहव्यन्तरायतनं नतु भगवतामर्हतामायतनम् " [ भग० श० १३० १] अर्थात् - प्यादि पदार्थ का जो चयन है उसे चिति कहते हैं इस चिति का जो चितिपन है अथवा चिति का जो कर्म है उसको चैत्य कहते हैं, यह संज्ञा शब्द है अतः इस का अर्थ देव का बिम्ब-प्रतिमा - करना प्रतिमा का आश्रय रूप होने से उसका घर-मन्दिर भी चैत्य कहलाता है, परन्तु यहां पर चैत्य का अर्थ व्यन्तरायतन - व्यन्तरजाति के देव विशेष - यज्ञादि का आयतन - घर करना अर्हतों का आयतन नहीं करना । पूज्य अभयदेव सूरि ने यहां के चैत्य का व्यन्तरायतन-यक्ष मन्दिर अर्थ समझने की ओर लक्ष्य क्यों दिलाया ? इसको भी तुम्हें समझ लेना चाहिये । चैत्य शब्द का प्रधान अर्थ देवप्रतिमा या देवमन्दिर है और देव शब्द का सामान्य रूप से देवयोनि में उत्पन्न होने वाले देवों के अतिरिक्त तीर्थंकर में भी तीर्थंकरदेव इस नाम से व्यवहृत होता है। तब इस नाम सम्बन्धी समानता को लेकर देव बिम्ब- देव प्रतिमा या देवस्थान देवमन्दिर से यहां पर जिन प्रतिमा या जिन मन्दिर का ग्रहण भी हो सकता है जो कि इष्ट नहीं है । तात्पर्य कि पूर्णभद्र आदि यक्षों के चैत्य-मन्दिर भले ही देवमन्दिर कहलायें परन्तु वे तीर्थंकर देव के मन्दिर कहे व माने नहीं जासकते । इन उक्त यज्ञायतनों - यज्ञालयों को जिनायतनों - जिनालयों से पृथक रूप से प्रदर्शित करने के लिये ही आगमवित् टीकाकार महानुभावों को - तच्चेह व्यन्तरायतनं नतु भगवतामर्द्दतामाय * पुराणभद्दस्स जक्खिदस्स' [ शत० १० उ०५ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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