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मूर्तिवाद का शास्त्रीय निर्णय
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नाम से अपनी पूजा विधि के अनुसार पूज रहे हों उनको भी वन्दना नमस्कार करना मुझे नहीं कल्पता। इससे अन्य यूथिक परिगृहीत चैत्य ही अवन्दनीय ठहरता है न कि अपरिगृहीत भी, वह तो वन्दनीय ही है। कल्पना करो कि अरिहन्त-तीर्थंकर-देव के दो चैत्य (प्रतिमायें) हैं । इनके स्वरूप और आकृति में किसी प्रकार की विभिन्नता नहीं, दोनों एक जैसे हैं, उनमें से एक तो चौवीस तीर्थंकरों में से किसी एक के नाम से प्रतिष्ठित और जैन विधि के अनुसार पूजित हो रहा है, और दूसरे पर किसी अन्य मतावलम्बी ने अधिकार जमा लिया, वह उसे भैरव या वीरभद्र अथवा और किसी नाम से सम्बोधित करके अपनी परम्परागत विधि के अनुसार उसकी सेवा पूजा करता है। यद्यपि इस विभिन्न प्रकार की पूजा विधि और विभिन्न नाम निर्देश से इन दोनों की वास्तविक मुद्रा में कोई अन्तर नहीं पड़ता, परन्तु सम्यक्त्वगामिनी जैन-दृष्टि के अनुसार व्रतधारी श्रावक के लिये तो पहला वन्दनीय और दसरा अवन्दनीय है। पहले को वन्दना करने से सम्यक्त्व में निर्मलता आती है जबकि दूसरे को बन्दना नमस्कार मिथ्यात्व का पोषण करता है । इसी आन्तरिक विभिन्न फल श्रुति को लेकर शास्त्रकार ने अरिहंत चैत्य के साथ “अन्ययूथिक परिगृहीत” यह विशेषण लगाया है । इस विशेषण से जहां चैत्य का मूर्ति अर्थ स्पष्ट हो जाता है वहां उसका विशुद्ध वन्दनीय स्वरूप भी निश्चित हो जाता है । अथवा यू समझिये कि अन्यमत परिगृहीत अरिहंत प्रतिमा को बन्दना-नमस्कार करने का निषेध, अरिहंत प्रतिमा की सत्ता और उसकी वन्दनीयता ये दोनों बातें प्रमाणित करता है । कारण कि "प्राप्तौ सत्यां निषेधः” ( प्राप्त होने पर ही निषेध किया जाता है ) इस सर्वानुभव सिद्ध लौकिक न्याय से सर्वत्र प्राप्त वस्तु का ही निषेध माना जाता है, अप्राप्त का नहीं। तब यहां पर अन्यमत परिगृहीत जिन प्रतिमा को वन्दना का निषेध करने से तद्भिन्न प्रतिमा अर्थात् स्वमत परिगृहीत जिन प्रतिमा को वन्दना का अधिकार स्वतः एव प्राप्त हो जाता है । यदि उस समय तीर्थकर प्रतिमायें विद्यमान न होती तो श्रागम के मूल पाठ में "अन्नउस्थिय परिग्गहियाणि अरिहंत चेइयाणि" इस उल्लेख की आवश्यकता ही न होती। अतः इस उल्लेख से सूचित ही नहीं किन्तु सिद्ध होता है कि आनन्द श्रावक के समय में तीर्थंकर प्रतिमायें अधिक संख्या में विद्यमान थीं और श्रमणोपासकों द्वारा वे विधि पूर्वक पूजी जाती थीं। एवं कहीं २ पर अन्य मतावलाम्बियों ने तीर्थंकर प्रतिमा को ले जाकर अपने देव के नाम से अपनी पूजाविधि के अनुसार उसकी-तीर्थंकर प्रतिमा की पूजा भी आरम्भ करदी थी । यदि ऐसी प्रतिमा को तीर्थकर प्रतिमा समझ कर कोई श्रमणोपासक वन्दना नमस्कार करे तो उससे मिथ्यात्व को उत्तेजन मिलने की संभावना है, एदतर्थ उसको बन्दना नमस्कार करने का उक्त पाठ द्वारा निषेध किया गया है । परन्तु यह निषेध तब तक उत्पन्न नहीं हो सकता जब तक कि तीर्थंकर प्रतिमा और उसकी पूजा की प्रवृत्ति विशेष रूप से प्रचार में न आ चुकी हो।
तथा अन्य यूथिक परिगृहीत प्रतिमा को वन्दना का निपेध होने से अर्थापत्ति प्रमाण से स्वमत परिगृहीत प्रतिमा को वन्दना करना स्वतः एव सिद्ध हो जाता है । तब यह निषेध से उत्पन्न होने वाला विधि-वाक्य है, जिससे मूर्ति पूजा की विधेयता प्रमाणित होती है । इस प्रकार निषेध में से निप्पन्न होने वाला परम्परागत
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