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मूर्तिवाद का शास्त्रीय निर्णय
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अनुसार जिन प्रतिमा या मूर्तिपूजा सम्बन्धी अागम पाठों का उल्लेख कहां और किस प्रकार है ? एवं उनके अर्थ निर्णय में हमारी सम्प्रदाय के साधुओं की ओर से उठाई जाने वाली शंकाओं का समुचित तथा सन्तोषजनक समाधान क्या है ? इत्यादि बातों का पूरा पूरा स्पष्टीकरण हम आपके मुखारविन्द से कराना चाहते हैं । ताकि फिर कभी इस विषय की चर्चा के लिये समय लेने की आवश्यकता न रहे । इस विषय में आप श्री को इतना स्मरण रहे कि यह हम इसलिये नहीं पूछ रहे कि हमको जिनप्रतिमा यामूर्तिपूजा के विहितत्व में किसी प्रकार का सन्देह है [ वह तो आपकी कृपा से अव सर्वथा मिट गया। ] बल्कि इसलिये पूछ रहे हैं कि हम भी इस विषय में निष्णात हो जावें ताकि आपकी अनुपस्थिति में इस विषय में किसी के द्वारा उठाये गये प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर देकर आपके कार्य में सहायक बन सकें ।
श्री आत्मारामजी-तब तो और भी अच्छी बात है । लो, अब इस विषय का शास्त्रीय स्पष्टीकरण सुनो, और सुनकर उसे मनन करने का यत्न करो।
जिन प्रतिमा की उपासना या मूर्तिपूजा के अागम विहितत्व के अर्थात् उसे आगम विहित या आगम सम्मत प्रमाणित करने के लिये सर्व प्रथम तीन बातों का ध्यान रखना चाहिये यथा
(१) चैत्य शब्द के अर्थ की विचारणा (२) आगमगत पाठों की प्रकरण और विषयानुसारी अर्थसंगति और उनपर लिखे गये प्राचीन आचार्यों के नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाओं के पाठों की गवेषणा । इसके अतिरिक्त प्रस्तुत विषय से सम्बन्ध रखने वाली सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात है आगमों की वर्णन शैली का ज्ञान । इसके बिना प्रस्तुत विषय में जो निर्णय होगा वह अधिक सन्तोषजनक प्रमाणित नहीं हो सकेगा।
अपने पंथ वाले–“अन्धेनैव नीयमानो यथान्धः" की उक्ति को चरितार्थ करते हुए जिन प्रतिमा या मूर्तिपूजा का विरोध करते समय यह सर्वथा भूल जाते हैं कि जैन धर्म या जैन परम्परा को प्राचीन सिद्ध करने के लिये सिवाय मन्दिर और मूर्ति के उन के पास दूसरा साधन ही क्या है ? अगर जैन परम्परा में से जिन मन्दिर और जिन प्रतिमा को निकाल दिया जाय तो उसकी ऐतिहासिक प्राचीनता की डौंडी पीटना सभ्यसमाज में वैसा ही उपहास्यजनक होगा जैसा कि जंगल में कई दिनों से पड़े हुए प्राणी के चेतनाशून्यनिर्जीव कलेवर को उठाकर उससे बातचीत करने का उद्योग करना । तात्पर्य कि जैसे निर्जीव कलेवर बात करने में सर्वथा असमर्थ होता है उसी प्रकार जैन परम्परा के प्राणभूत मन्दिर और मूर्ति को उसमें से निकाल देने के बाद उसकी चेतनारूप प्राचीनता भी साथ में ही लुप्त हो जाती है । आज यदि भूगर्भ से निकली हुई लगभग दो अढाई हजार वर्ष की प्राचीन विशाल जिनप्रतिमायें हमारे सामने न होतीं और यदि प्राचीन जिन मन्दिरों के भग्नावशेष हमारे दृष्टिगोचर न होते एवं पुस्तकों में लिखा हुआ देवनिर्मित स्तूप यदि मथुरा के कंकाली टीले को फोड़कर उसके गर्भ से न निकल पाता तो कौन ऐसा अबोध व्यक्ति होता जो केवल हमारे कथनमात्र से ही जैन धर्म की प्राचीनता को स्वीकार कर लेता ? इसलिये मन्दिर और मूर्ति को जैन
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