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नवयुग निर्माता
परम्परा से निकाल कर उसकी ऐतिहासिक प्राचीनता का दावा करना मेरे ख्याल में बालचेष्टा के सिवा और कुछ भी महत्व नहीं रखता । अस्तु अब प्रस्तुत विषय की ओर आइये
चैत्य शब्द का अर्थ है मन्दिर और मूर्ति, इसी अर्थ में उसका जैनागमों में व्यवहार हुआ है । स्थानांग, सूत्रकृतांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति - ज्ञाताधर्म कथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, प्रश्न व्याकरण और पपातिक तथा राजप्रश्नीय आदि आगम ग्रन्थों में जहां "देवयं चेइयं" पाठ आया है, वहां पर तो उसका आगम-सम्मत अर्थ है देवप्रतिमा या इष्टदेव प्रतिमा, और जहां पर "पुराणभद्दे चेइए” “गुणसिलिए चेइए” “मणिभद्दे चेइए” इत्यादि पाठ हैं वहां पर उसका चैत्य का उस २ नाम से विख्यात व्यन्तर जाति के देव विशेष का मन्दिर अर्थ है । एवं जहां पर केवल “चैत्य, जिन चैत्य, या अरिहंत चैत्य” पाठ है वहां पर तो उसका जिन प्रतिमा या जिन मन्दिर अर्थ ही शास्त्रसम्मत है । इस अर्थ में किसी को भी विसंवाद नहीं है ।
औपपातिक सूत्रगत “पुण्णभद्दे चेइए" इस वाक्य में उल्लिखित 'पूर्णभद्र चैत्य' क्या है ? इसका स्पष्टीकरण उसका वर्णन देखने से निश्चित हो जाता है । औपपातिक सूत्र में पूर्णभद्र चैत्य का जो वर्णन किया गया है उस पर से अन्य आगमों में उल्लेख किये गये “गुणसिलिए चेइए" "मणिभद्दे चेइए" आदि पाठों में प्रयुक्त हुए चैत्य शब्द का अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है। वह पाठ इस प्रकार है
"तीसेणं चंपारणयरीए वहिया उत्तरपुरत्थि मे दिसिभाए पुराणमद्देणामं चेड़ए होत्था, चिराइए पुव्वपुरिसपण्णत्ते पोराणे सद्दिए, कित्तिए गाए सच्छत्ते सज्झए, सघंटे सपड़ागे पड़ा - पडागमंडिए सलोमहत्थे कयवेयडिए लाइय उल्लोइय महिए गोसीस सरस रत्तचंदण दद्दर दिए पंचगुलितले उवचिय चंदण कलसे चंदण घड़ सुकय तोरण पडिदुआर देसभाए सितो - सिविल वारिय मल्लदाम दाम कलावे, पंच्चवरण सरस सुरभि मुक्क पुष्क पुंजोवयार कलिए, कालागरुपवर कुंदरुक्क तुरुक्क धूव मघ मघंत गंधुद्धयाभिरामे सुगंध वरगंध गंधिए गंध ट्टिए खड़ग जल्ल मल्ल मुट्ठिय वेलंग पवग कहग लासग आइक्खग लंख मंख लूणइल्ल तुंब बीणिय भुयग मागह परिगए बहुजण जाण वयस्स विस्सुयकित्तिए बहुजणस्स
हुस्स हुणिज्जे पाहुणिज्जे अच्चणिज्जे चंदणिज्जे नमसणिज्जे पूर्याणिज्जे सक्कार णिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे, दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सरिगहिय पड़िहारे जागसहस्स भाग पड़िच्छए बहुजणो अच्चेइयागम्मपुराणभद्दं चेहयं" (१) (१) छाया - तस्यां णं चम्पायां नगर्यां बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे पूर्णभद्रं नाम चैत्यं अभवत् । चिरातीतं पूर्वपुरुषप्रज्ञप्तं पुराणं शब्दितं कीर्तितं ज्ञातं सच्छत्रं सध्वजं सघंटं सपताकं पताकातिपताकामंडितं
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