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अध्याय १२
मूर्तिवाद का शास्त्रीय निर्णय
यह तो पाठक जान ही चुके हैं कि महाराज श्री आत्मारामजी के प्रतिबोध और ज्ञानाभ्यास कराने से साधु श्री विश्नचन्द और उनके शिष्य श्री हाकमराय और चम्पालालजी और श्री निहालचन्दजी के हृदय में जैन धर्म के वास्तविक स्वरूप की गहरी छाप पड़ चुकी थी, उसके कारण वे बाहर से पूज्य श्री अमरसिंहजी के शिष्य कहलाते हुए भी भीतर से श्री आत्मारामजी के हो चुके थे। वे उस समय की बड़ी शीघ्रता से प्रतीक्षा कर रहे थे जिस समय श्वेताम्बर जैन परम्परागत शास्त्रसंमत साधु वेष को धारण करके जैन धर्म के वास्तविक स्वरूप का प्रचार करने के लिये प्रत्यक्ष रूप से बाहर निकलें और हम सब उनके अनुगामी बनने का सर्व प्रथम श्रेय प्राप्त करें तथा जैन धर्म की प्रभावना में अपने साधु जीवन का भी सदुपयोग करें । परन्तु इससे पहले मूर्तिवाद अर्थात् जिन प्रतिमा सम्बन्धी आगम पाठों का श्राप श्री के मुखारविन्द से पूरा पूरा परमार्थ समझलें ताकि आप की अनुपस्थिति में किसी समय उपस्थित हुई प्रतिमा सम्बन्धी चर्चा का हम भी शास्त्रीय निर्णय करने के योग्य बन सकें । इसी भावना से प्रेरित हुए श्री विश्नचन्द चम्पालाल और हाकमरायजी आदि साधु समुदाय श्री आत्मारामजी के पास पहुंचे और विधि पूर्वक वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर उनकी सेवा में, निर्धारित प्रस्ताव को श्री विश्नचन्दजी ने इस रूप में उपस्थित किया
___ महाराज ! श्राप श्री के पुनीत सम्पर्क में आने के बाद हमारी अन्ध श्रद्धा को जो दिव्य चक्षु प्राप्त हुए हैं और उनके प्रकाश में हमारे विपथगारी साधु जीवन को जिस सुपथ पर चलने का साधु संकेत प्राप्त हुआ है उसके लिये हम आपके अधिक से अधिक कृतज्ञ हैं । श्राप श्री ने हमारे अन्धकार पूर्ण जीवन में जिस दिव्य प्रकाश का संचार किया है उससे हमें अपने भावी जीवन के निर्माण में काफी से भी अधिक सहायता मिली है, यह तो निस्सन्देह ही है कि हम सब आपके हैं और जीवन पर्यन्त श्रापके रहेंगे । परन्तु
आज हम जो विचार मन में लेकर आपकी पुनीत सेवा में उपस्थित हुए हैं वह है मूर्तिवाद-जिनप्रतिमा संबंधी शास्त्रीय निर्णय अथवा मूर्तिपूजा विषयक शास्त्रीय विधान । तात्पर्य कि हमारी सम्प्रदाय की भागम मान्यता के
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