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मुखवस्त्रिका का शास्त्रीय स्वरूप और प्रयोजन
उनपर रचे गये निर्युक्ति, भाध्य, चूर्णी और टीकाओं के एक एक पाठ से मूर्तिपूजा सम्बन्धी तुम्हारी सभी शंकाओं का सन्तोष जनक समाधान कर दिया है। इसके अतिरिक्त विवादास्पद अन्य विषयों पर तुम्हारी तरफ से उठाई गई शंकाओं के समाहित होने में भी कोई कमी नहीं रही । उससे तुम्हारी आत्मा को भी पूरा २ सन्तोष मिला है इसका भी मुझे अनुभव है। तब मैंने कहा- हां महाराज ! बात तो ऐसी ही है आप श्री का कथन सोलह ने यथार्थ है मुझे तो जैन धर्म के वास्तविक स्वरूप के विषय में अब किसी तरह की भ्रान्ति नहीं रही । यह सब कुछ आपकी उदार कृपा का ही फल है ।
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इतना वार्तालाप होने के बाद महाराज श्री रत्नचन्दजी वहां से उठकर दूसरी जगह पर जा बैठे और मैं अपने स्थान पर गया । सो आज का वार्तालाप इन्हीं शब्दों के साथ समाप्त होता है तुम लोग अपने स्थान में पधारें और मैं अपने दूसरे काममें लगता हूँ ।
सभी मिलकर - तहत वचन - जो आज्ञा कह कर सबने वन्दना की और अपने स्थान - उपाश्रय की ओर चलपड़े और आप अपने किसी दूसरे धार्मिक व्यापार में लग गये ।
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