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नवयुग निर्माता
चम्पालालजी-महाराज ! अपने तो ऐसे नहीं करते।
श्री श्रआत्मारामजी—यह बात भी मैंने इन्हीं शब्दों में उनसे कही थी, तब उन्होंने कहा कि भाई ! अपने कोई शास्त्र के आधार पर थोड़े ही चलते हैं । तब मैंने कहा-कि अपने सम्प्रदाय में पलोथी मार के चौकड़ी से बैठकर दोनों हाथ मिला के काउस्सग करने की जो रीति चल रही है उसका कोई न कोई आधार तो होगा ? इस पर महाराज श्री रत्नचन्दजी ने फर्माया-कि इसपर मैंने स्वयं भी कई बार विचार किया है, अन्त में मैं तो इसी निर्णय पर पहुंचा हूँ कि अपने ढूंढक सम्प्रदाय में बैठेहुए काउस्सग्ग करने की जो रीति प्रचलित हो रही है उसका आधार जिन प्रतिमा ही हो सकती है, अर्थात पद्मासन में बैठी हुई ध्यानारूढ़ जिनप्रतिमा की मुद्रा को ही अनुकरण रूप से काउस्सग्ग में अपनाया गया है। जिन प्रतिमा दो प्रकार की होती हैएक खड्गासन दूसरी पद्मासन, खड़ी का खगासन और बैठी का पद्मासन होता है । इसलिये अपनी सम्प्रदाय में प्रचलित कायोत्सर्ग की रीति का आधार पद्मासन की जिन प्रतिमा ही प्रतीत होती है। मेरे इस विचार की पुष्टि एक दूसरे प्रमाण से भी होती है,-अपनी सम्प्रदाय के मूल पुरुष हैं लौंकाजी, वे पहले मूर्ति को मानते
और निरन्तर दो वक्त मन्दिर में जाकर सेवा पूजा करते और तिलक लगाते थे, मूर्ति का विरोध तो उन्होंने बहुत पीछे से आरम्भ किया जब कि वे यतियों द्वारा अपमानित होकर अहमदाबाद से निकले । सो बहुत वर्षों की आराधना से हृदय में समाई हुई जिन मुद्रा की प्रतीक रूप मूर्ति को ध्यान के लिये आदर्श रूप मान लेना स्वाभाविक ही था इसलिये हमारी सम्प्रदाय में प्रचलित होने वाली काउस्लग्ग की इस रीति को प्रथम लौंकाजी ने ही चलाया होगा, ऐसा मानना मुझे अधिक युक्ति संगत प्रतीत होता है, और वास्तव में देखा जाय तो बहुत सी बातें तो अपने में मन्दिराम्नाय वालों की देखा देखी ही प्रवृत्ति में आई हुई हैं-उदाहरणार्थ एक बहुत साधारण बात को लीजिये
अपने सम्प्रदायवाले, पक्खी प्रतिक्रमण में १२ लोगस्स का, चौमासी प्रतिक्रमण में २० लोगस्म का और सम्वत्सरी में ४० लोगस्म का जो-काउस्सग्ग-कायोत्सर्ग करते हैं इसका विधान अपने माने हुए ३२ सूत्रों में से किसी सूत्र के मूल पाठ में है ? यदि नहीं तो फिर यह किस आधार से किया जाता है ?
इस पर मैंने कहा-कि महाराज ! अपनी भी तो कोई परम्परा होगी उसी के अनुसार हम करते चले आरहे हैं । तब आप बोले कि परम्परा में भी तो कोई मूल पुरुष होना चाहिये । और जब हम मूल पुरुष की खोज करते हैं तो लौंकाजी के सिवा और कोई सिद्ध नहीं होता।
इस पर मैंने कहा कि महाराज ! इससे तो जिन प्रतिमा के उपासक अपने सम्प्रदाय से बहुत पहले के सिद्ध होगये । इतना सुनकर आप कुछ मुस्कराये और कहने लगे-क्या तुमको अब इसमें भी कोई सन्देह रह गया है । मूर्तिपूजा तो जैन परम्परा के धार्मिक कर्तव्यों में से अन्यतम असाधारण कर्तव्य है । अतः जैन परम्परा के प्रारम्भ के साथ ही इसका प्रारम्भ है और होना चाहिये । मैंने तुमको मूल जैनागमों, और
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