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________________ - मुखवस्त्रिका का शास्त्रीय स्वरूप और प्रयोजन व्याख्या - "अणुन्नत्ति" अनुज्ञाप्य मागरिक परिहारतो विश्रमणव्याजेन ततस्वामिनमवग्रह "मेधावी" साधुः "प्रतिच्छन्ने" तत्रकोष्टादौ “संवृतः” उपयुक्तः सन साधुः ईर्याप्रतिक्रमणं कृत्वा तदनु “हस्तगं" मुखवलिका रूपं श्रादायेति वाक्यशेषः, संप्रमृज्य विधिना तेन कायं तत्र भुंजीत “संथतो" रागद्वेषावपाकृत्येति मत्रार्थः । इसका भावार्थ यह है कि ग्रामादि से गोचरी लाकर श्राहार करने के निमित्त स्थान वाले गृहस्थी से आज्ञा लेकर एकान्त स्थान में जाकर ईर्यावही पडिकमे तदनन्तर हस्तग अर्थात मुखबस्त्रिका की पडिहलेना करके उससे विधि पूर्वक शरीर की प्रतिलेखना करे उसके बाद समभाव पूर्वक एकान्त में आहार करे । इस गाथा में मुखवस्त्रिका के लिये प्रयुक्त हुआ “हस्तग" शब्द उसके हस्तगत होने की ओर ही संकेत करता है। तथा इमसे भी अधिक स्पष्ट और प्रस्तुत विषय से सम्बन्ध रखनेवाला पाठ आवश्यक नियुक्ति का है जो कि इस प्रकार है "चउरंशुल पायाणं मुहपत्ति उज्जए, उनहत्थ रयहरणं । वोसट्ट चत्त देहो काउस्सग्गं करिज्जाहि ॥ १५४५॥ व्याख्या-चउरंगुल त्ति च तारि अंगुलाणि पायाणं अंतरं करेयव्वं मुहपोत्ति "उतए" ति दाहिण हत्थेण मुहपोत्तिया घेतव्या, उव्वहत्थे रयहरणं कायव्यं एतेण विहिणा "वोसट्टचत्तदेहोत्ति पूर्ववत काउस्सग्ग करिज्जाहिति गाथार्थः” इस गाथा में कायोत्सर्ग की विधि का वर्णन किया गया है-कायोत्सर्ग के लिये इस प्रकार खड़े होना चाहिये जिससे दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अन्तर हो, तथा दक्षिण-सज्जे हाथ में मुहपत्ति और वाम-खवे हाथ में रजोहरण रखना, दोनों भुजाओं को लम्बी लटकाकर सीधे खडे होकर शरीर काव्युत्सर्ग करते-शरीर को वोसराते हुए ध्यानारूढ होना चाहिये यह काउस्सग्ग-कायोत्सर्ग की विधि है। इस गाथा में कायोत्सर्ग करते समय मुखवस्त्रिका को दक्षिण हाथ में रखने का स्पष्ट निर्देश है इसलिये प्रस्तुत शंका के समाधान में इस प्रमाण से किसी प्रकार की कमी वाकी नहीं रह जाती। चम्पालालजी-महाराज ! आपने हम लोगों पर बड़ी कृपा की जो कि मुंहपत्ति से सम्बन्ध रखने वाली सारी बातों का शास्त्र दृष्टि से स्पष्टीकरण कर दिया, परन्तु इस प्रकरण में जो काउमग्ग-कायोत्सर्ग का प्रसंग आ पड़ा है उसे भी थोड़ा सा स्पष्ट करने की कृपा करें ? खड़े होकर काउसग्ग करने की रीति को हमने सुना और समझ लिया मगर बैठे हुए काउसग्ग करना हो तो कैसे करना ? श्री आत्मारामजी–मैंने भी श्री रत्नचन्दजी महाराज से एक दिन यही प्रश्न किया था, तब उन्होंने उत्तर में कहा कि-चौकड़ी लगाकर बैठना, दोनों भुजायें लम्बी कर देनी जो गोड़ों पर आजावें और अोघा मुंहपत्ति उसी प्रकार रखनी यह बैठकर का उम्सग करने की रीति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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