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नवयुग निर्माता
ओघनियुक्ति की इस गाथा में मुखवत्रिका के तीन प्रयोजन बतलाये हैं [१] खुले मुख बोलते समय कोई उड़ने वाला सूक्ष्म जीव मुख में न गिरे अर्थात उसकी रक्षा के लिये बोलते वक्त मुखवस्त्रिका मुख के आगे रखनी [२] शरीर पर उड़कर पड़ी हुई सूक्ष्मधूली को मुखवस्त्रिका द्वारा शरीर पर से दूर करना [३] उपाश्रय
आदि के प्रमार्जन के वक्त मुख नासिका को मुखवस्त्रिका से ढक लेना,संक्षेप से कहें तो संपतिम जीवों की रक्षा के लिये पृथ्वी की प्रमार्जना के लिये और मुखादि में धूली का प्रवेश न हो तदर्थ साधु को मुखवस्त्रिका रखनी चाहिये । तव जो लोग एकमात्र वायुकाय के जीवों की रक्षा ही मुखवत्रिका का प्रयोजन बतलाते हैं- अर्थात खुले मुख बोलने से वायुकाय के जीवों का अवहनन होता है तदर्थ-उनकी रक्षा के लिये मुखवस्त्रिका से मुख बान्धना चाहिये, उनका यह कथन शास्त्रसम्मत न होने से उपादेय नहीं है।
एक साधु-(विनयपूर्वक) क्यों मस राज ! कैसे शास्त्र सम्मत और उपादेय नहीं ?
श्री श्रात्मरामजी-इसलिये कि शास्त्र में वैसा उल्लेख नहीं, अर्थात वायुकाय के जीवों की रक्षा के लिये मुखवत्रिका को मुख के आगे धरना ऐसा कथन किसी शास्त्र में दृष्टिगोचर नहीं होता । दृमरे वायुका य के जीव आठ स्पर्शी हैं और मुख की भाफ चतुःस्पर्शी है, फिर चतुस्पर्शी आठस्पशी का कैसे घात कर सकता है, इसका तुम स्वयं विचार करो ? इसलिये ओघनियुक्ति में मुखवत्रिका के जो जो प्रयोजन बतलाये हैं वे ही शास्त्रसम्मत अथच उपादेय हैं । इसी प्रकार मुंहपत्ति बान्धने के विषय में भी जान लेना अर्थात उसके बांधने का उल्लेख भी किसी शास्त्र में नहीं है।
श्री विश्नचन्दजी-गुरुदेव ! आपने आज मुंहपत्ति के स्वरूप और प्रयोजन के विषय में जो शास्त्रीय खुलासा किया है इसके लिये हम सब आप श्री के बहुत २ कृतज्ञ हैं ! परन्तु अभी २ एक शंका मन में उठी है उसका समाधान भी बहुत आवश्यक जान पड़ता है ?
आपके कथनानुसार मुंहपत्ति से दिन रात मुंह बान्ध रखना यह शास्त्र सम्मत आचार नहीं किन्तु शास्त्रबाह्य मनःकल्पित है । तो क्या हाथ में रखने का कोई संकेत शास्त्रकार ने किया है। कृपया इसको स्पष्ट कीजिये ?
श्री आत्मारामजी--पूर्वोक्त श्रोधनियुक्ति गाथा में मुखवस्त्रिका का जो प्रयोजन बतलाया है अथवा यूं कहिये कि उसका जिस तरह से उपयोग करने का आदेश है उससे मुखवस्त्रिका को हाथ में रखना, यही फलितार्थ सिद्ध होता है । इसके अतिरिक्त भी दशवैकालिक सूत्र में मुखवस्त्रिका के लिये "हत्थग-हस्तक" शब्द का प्रयोग किया है उससे भी यही प्रमाणित होता है । यथा
अणुन्नचित्तु मेहावी, परिच्छन्नम्मि संबुड़े । हत्थगं संपमज्जिता, तत्थ जिज्ज संजये" (५।८३)
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