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________________ अध्याय ११ arrant का शास्त्रीय स्वरूप और प्रयोजन दूसरे दिन नियत समय पर सब साधु श्री आत्मारामजी के पास पहुंच गये और विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करके जिज्ञासु के रूप में उनके सन्मुख आ बैठे। महाराज आत्मारामजी ने भी सप्रेम सुखसाता पूछ कर अपनी साधुजनोचित सहज उदारता का परिचय दिया । श्री विश्नचन्द जी - महाराज ! हम लोगोंका यह पूर्ण सद्भाग्य है जो आप जैसे सर्व गुण सम्पन्न ज्ञानवान महापुरुष का समय समय पर पुण्य सहयोग प्राप्त हो रहा है। कल आप श्री ने जैन साधु के उपकरणों का वर्णन करते हुए उनकी जो शास्त्रीय व्याख्या की उसको हम सबने बड़े ध्यान से 'सुना और स्थान पर जाकर अपने अपने क्षयोपशम के अनुसार उसे मनन भी किया । परन्तु उनमें अन्तिम उपकरण मुग-मुंहपत्ति के विषय में ये साधु कुछ विशेष स्पष्टीकरण की जिज्ञासा कर रहे हैं। सो यदि आप इसके सम्बन्ध में कुछ कहने की कृपा करें तो हम सब पर महान् उपकार हो । श्री आत्मारामजी - अच्छा, यदि तुम लोगों की यही इच्छा है तो आज इसीका विचार करेंगे । पति- मुस्त्रिका का आगम ग्रन्थों में भिन्न २ नामों से उल्लेख किया है। जैसे कि कल बतलाया थामुहांतग - मुखानन्तक, मुंहपोतिग-मुखपोतिका, मुहपोत्तिय और हत्थग-हस्तक, ये मुखवस्त्रिका के ही नामान्तर हैं। अपने माने हुए ३२ आगमों में इन नामों से उसका उल्लेख तो मिलता है, परन्तु उसके स्वरूप का विधान कहीं किया नहीं मिलता । जो लोग केवल ३२ मूल आगमों को मान्य रख कर बाकी के आगमों और आगममूलक नियुक्ति, भाव्य, चूर्णी आदि प्रामाणिक जैनवाङ्मय को स्वीकार नहीं करते उनके पास साधु के इस विशिष्ट उपकरण रूप मुखवस्त्रिका के स्वरूप और परिमाण का निश्चय करने या बतलाने के लिये कोई साधन नहीं जब तक कि वे आगमों पर लिखे गये निर्यक्ति, भाष्य और चूर्णी आदि सद्ग्रन्थों का आश्रय नहीं लेते । एक छोटा साधु-तो, महाराज ! हम यूं ही रात दिन इसे बान्धे फिरते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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