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________________ नवयुग निर्माता श्री आत्मारामजी-वीवा ! बान्धने का उल्लेख तो कहीं है ही नहीं । न बत्तीस में न बत्तीस से बाहर और किमी में । यह बान्धने की प्रथा [वास्तवमें-कुप्रथा] तो लवजी ने चलाई है, जिसको हुए अनुमान दो अढाई सौ वर्ष से अधिक समय नहीं हुआ। एक दिन श्री रत्नचन्दजी महाराज ने इसी विषय के चर्चा प्रसंग में मुझसे फर्माया था कि भाई आत्माराम ! सत्य तो यह है कि-"अपना यह सम्प्रदाय थोड़े ही वर्षों से बिना गुरु के लवजी ने चलाया है और महपत्ति मुखपर बान्धनी मेरे बड़ों ने कोई टेढ सौ वर्ष के लगभग आरम्भ की है और तेरे बड़ों ने कोई दो सवा दो सौ वर्ष हुए तब बांधनी शुरू की है। इससे पूर्व जैन परम्परा में मुंहपत्ति बान्धने की प्रथा की गन्ध तक भी नहीं थी।" ___ मैंने श्रीरत्नचन्दजी महाराज के पुण्य सहवास में रहकर हर एक विचारणीय विवादास्पद विषय की पूरी पूरी गवेषणा की है । मुझे जबसे शब्द-शास्त्र का बोध प्राप्त हुआ, और जब से मैंने आगमों की नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीका आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करना शुरु किया तब से लेकर जैन धर्म के प्रत्येक सिद्धान्त की पूरी २ छान बीन करने में व्यस्त रहा, एक सत्य गवेषक तटस्थ व्यक्ति की भांति । आगरे पहुंचने पर अध्ययन किये हुए आगम ग्रन्थों का निर्यक्ति, भाष्य, चूर्णी आदि प्रामाणिक आचार्यों की प्राचीन व्याख्याओं के साथ फिर से अभ्यास करना प्रारम्भ किया, एवं श्री रत्नचन्दजी महाराज के साथ एक २ विषय पर घंटों नहीं कई २ दिनों तक एक वादी के रूप में उपस्थित रह कर चर्चा की और जब तक हृदय स्पर्शी किमी अन्तिम निर्णय पर नहीं पहुंचा तब तक उसे छोड़ा नहीं । और परस्पर के विचार विनिमय से. एवं तुलनात्मक दृष्टि से की गई गहरी खोज से जो सत्य उपलब्ध हुआ, उसे अपने हृदय में सुरक्षित रवखा । यह बात, दो और दो चार की भान्ति नितान्त सत्य है कि नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी तथा सुविहताचायों की रची हुई टीकात्रों की सहायता के बिना अागमों का रहस्य समझ में नहीं आता । अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं, अपना आजका चर्चास्पद मुंहपत्ति का विषय ही लीजिये-किसी भी मूल आगम में इसके स्वरूप और प्रयोजन का पता नहीं मिलता, यदि मिलता है तो ओपनियुक्ति आदि में मिलता है । और वास्तव में विचार किया जाय तो नियुक्ति भी आगम के समान ही प्रामाणिक है, कारण कि उसके निर्माता कोई साधारण व्यक्ति नहीं किन्तु पांचवें श्रुतकेवली चतुर्दश पूर्वधारी स्वामी श्री भद्रबाहु हैं । शास्त्रानुसार तो अभिन्न दश पूर्वी तक का भी कथन सम्यग्-यथार्थ ही माना गया है क्योंकि अभिन्न दश पूर्वी तक नियमेन सम्यग्दृष्टि के होते हैं "और + “बीबा" यह पंजाबी भाषा का शब्द है, जो कि किमी बालक या नवयुवक को प्यार से सम्बोधन करने के स्थान में प्रयुक्त होता है। * इसके लिये देग्विये श्री नन्दीमूत्र का निम्न लिखित पाठ:- "हरदय दुवालसंगं गणिपिड़गं चोहस पुन्विस्स सम्मसुधे अभिएण दस पुध्विस्स सम्मसुअं तेणपर भिरणेसु भयणा से तं सम्मसुग्रं" टीका-अभिन्नदशपृर्विणः- सम्पूर्ण दशपूर्वधरस्य, संपूर्ण दश पूर्वधरत्वादिकं हि नियमत: सम्यग्दृष्टैरे व न मिथ्यादळं: तथा स्वाभाव्यात "। (श्री मलयागिरिजी] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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