________________
-
साधु वेष का शास्त्रीय विवरण
७६
मुंहपोतिग, मुंहपोतिय, आदि शब्दों का उल्लेख किया गया है। देखो इसी प्रश्नव्याकरण में अन्यत्र मुखपत्रिका के अर्थ में "मुंहपोतिग" और "मुंहपोत्तिय ' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। यथा
(१) “पीठफलग सिजा संथारग वत्थ पत्त कंबल दंडगरयहरण चोलपट्टका मुंहपोतिग पाय पुंछणादि" [१ संवरद्वार १ भावना सू. २३ ] (२) 'पीठ फलग सेजा संथारग वत्थ कंवल मुहपोतिय पायपुंछणादि"
[३ संवरद्वार सू. ३६] इस प्रकार मुखवत्रिका के लिए भिन्न भिन्न शब्दों का शास्त्र में प्रयोग किया गया है परन्तु अर्थ सब का एक ही है । वही-बोलते समय मुख के आगे रखने का अमुक परिमाण का वस्त्रखंड जो कि जैन परम्परा में मुखवस्त्रिका मुंहपत्ति के नाम से प्रसिद्ध है ।
एक छोटा साधु बीच में ही बात काटकर-महाराज जी साहब ! इस पाठ में तो दंडे का भी उल्लेख है, तो क्या साधु को दंडा भी रखना चाहिये ?
श्री आत्मारामजी-वाह भाई ! तू तो बीच में ही बोल उठा, मैंने तो स्वयं ही दंडे का प्रकरण चलाना था। जिस बात का शास्त्र में स्पष्ट उल्लेख किया गया हो, उसमें सन्देह को कौनसा स्थान है। दंडा, यह साधुका शास्त्र विहित उपकरण है, अतः साधु को उसे रखना ही चाहिये । श्वेताम्बर आम्नाय के संवेगी साधु और यति अपने पास हमेशा ही दंडा रखते हैं। प्रश्न व्याकरण के अतिरिक्त दशवैकालिक सूत्र में भी दंडे का विधान है।
वही छोटा साधु-हां महाराज ! मुझे भी याद है वहां "दंडगंसि" ऐसा पाठ आता है । परन्तु कृपानाथ ! एक बात और है जिसके जानने की मुझे बहुत उत्कंठा हो रही है। साधु के उपकरणों में जो "पायपुंछणं" शब्द आया है उसका क्या परमार्थ है ? रजोहरण तो हो नहीं सकता, क्योंकि उसका पृथक उल्लेख है, तब उसका क्या स्वरूप है, इसे समझाने की कृपा करें।
श्री आत्मारामजी-पायपुंछण, यह पैर पूंजने का उपकरण है, मन्दिराम्नाय वाले इसे दंडासन के नाम से पुकारते हैं । उनके पास रजोहरण और दंडासन दोनों ही होते हैं । रजोहरण शरीर पूंजने के काम श्राता है और दंडासन से पैर पोंछते है, इसके सिवा यह उपाश्रय आदि की पडिलेहना करने के काम में भी आता है । परन्तु अपने सम्प्रदाय वाले ग्राम में प्रवेश करते समय रजोहरण से ही पैर पूंजने का काम लेते हैं, सो ठीक नहीं है।
इस प्रकार साधु के उपकरणों की शास्त्रीय विवेचना करने के अनन्तर महाराज श्री श्रआत्मारामजी ने फरमाया कि आज के वार्तालाप में शास्त्रीय दृष्टि से जिन जिन विषयों की व्याख्या की गई है उन्हें एकान्त में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org