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________________ नवयुग निर्माता सिद्धान्त की यहां तक अवहेलना की कि जिस शास्त्र में हमारी दृष्टि अनुसार मूर्तिपूजा सम्बन्धी उल्लेख हो, उस शास्त्र को प्रमाण नहीं मानना । फिर भले ही शास्त्र विरुद्ध बिना माप के रजोहरण का उपयोग करते हुए हम प्रायश्चित के भागी भी क्यों न बनें ? क्या ऐसी कदाग्रह पूर्ण मनोवृत्ति की कोई चिकित्सा हो सकती है ? इतना प्रासंगिक भाषण करने के बाद आपने कहा कि आप्त प्रणीत आगमों के रहस्य को समझने के लिये पूर्वाचार्यों के नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाओं की ही शरण लेनी पड़ती है, विना इनके आगमगत पाठों का वास्तविक रहस्य कदापि अवगत नहीं हो सकता, इसलिये निशीथसूत्र के उक्त पाठ का परमार्थ तुम लोगों को निशीथचूर्णी और ओघनियुक्ति आदि में ही उपलब्ध हो सकता है। निशीथचूर्णी और अोघनियुक्ति में कहा है कि-रजोहरण का कुल माप ३२ अंगुल का है, जिसमें २४ अंगुल की डंडी और आठ अंगुल परिमाण फलियां होनी चाहिये । यथा 'बत्तीसंगुलदीहं, चौवीसं अंगुलाइ दंडोसे, अटुंगुला दसानो एगयरं हीण महियं वा" ॥७०६॥ (चूर्णी अोपनियुक्ति) ____ इसप्रकार का रजोहरण श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के साधु साध्वी और यति लोग ही रखते हैं, मैंने स्वयं उसे माप कर देखा है । चम्पालालजी-महाराज ! तब तो हमारा यह रजोणा-रजोहरण बिना नाप का श्रमण भगवान महावीर स्वामी की आज्ञा से बाहर का ही हुश्रा न ? .. श्री आत्मारामजी-इसमें क्या संदेह है ? अरे भाई ! एक रजोहरण की क्या बात, अपना तो यह सारा पंथ ही भगवान की आज्ञा से बाहर का है। अच्छा अब बाकी के उपकरणों के विषय में सुनो (१०) चोलपट्टक--चोलपट्टा । इससे तो तुम लोग परिचित ही हो । परन्तु अपने लोगों का चोलपट्टा बहुत लम्बा, प्रायः घघरे के समान होता है । अतः इसका भी कोई माप नहीं होता । परन्तु ओघनियुक्ति वगैरह में इसके माप का भी उल्लेख किया है । सो जब तुम लोग अोधनियुक्ति ने के योग्य हो जाओगे और पढ़ोगे तो तुमको स्वयं ही विदित हो जावेगा कि साधु की कोई भी क्रिया या उपकरण बिना प्रयोजन और बिना परिमाण का नहीं है। (११) मुहुणंतक--इसका अर्थ है मुखवस्त्रिका अर्थात बोलते समय मुख के आगे रखने का वस्त्र विशेष । परन्तु अपने सम्प्रदाय के लोगों ने इसका मुंह की पट्टी ऐसा अप्रमाणिक मनःकल्पित अर्थ करके मुंह का बान्धना सिद्ध करने का यत्न किया है । वास्तव में ऐसा करना उनके बड़े भारी अज्ञान का सूचक है। शास्त्र में मुख बान्धने का कहीं पर भी आदेश नहीं है, यह तो केवल लवजी के अबोधपूर्ण मस्तिष्क की उपज है जिसपर हम लोग मर्यादा से भी अधिक आग्रह किये हुए हैं। शास्त्र में मुखवत्रिका के लिये, मुहणंतग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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