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साधु वेष का शास्त्रीय विवरण
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श्री आत्मारामजी-भाई ! साधु के जितने उपकरण, शास्त्रों में बतलाये हैं उन सब की संख्या स्वरूप और परिमाण का भी निर्देश किया है, और रजोहरण के लिये तो शास्त्र में विशेष रूप से उल्लेख किया है, श्री निशीथ सूत्र में बिना परिमाण के ओघा रखने वाले साधु को प्रायश्चित बतलाया है । यथा
"जेभिक्खू अइरेयं पमाणं रयहरणं धरेइ धरंतं वा सातिजति" [उ०५] चम्पालालजी-तो महाराज ! इसके माप का निर्देश कहां और किस सूत्र में है ?
श्री आत्मारामजी-इसके माप का निर्देश उस सूत्र में है, जिसको हमारे ढूंढक पंथ वाले मानने से इनकार करते हैं, वह है ओपनियुक्ति और निशीथचूर्णी । उसको मानने से इनके गले में मूर्तिपजा आ पड़ती है , कारण कि उसमें अन्य शास्त्रों की अपेक्षा मूर्तिपूजा का अधिक स्पष्टीकरण है।
श्री चम्पलालजी-गुरुदेव ! मूर्तिपूजा की बात को तो अलग रखिये । वह तो आप श्री के सदुपदेश से हमारे रोम रोम में रच गई है । अब तो हम लोगों ने पहले की हुई निन्दा का श्रापके आदेशानुसार प्रायश्चित करना है, इसलिये अब तो रजोहरण के माप का पाठ बतलाने की कृपा करें।
श्री आत्मारामजी-वाह भाई चम्पालाल ! तुम तो ठीक चम्पा ही निकले । चम्पा के फूल में रूप भी होता है और सुगन्ध भी, उसी तरह तुम बाहर से रूपवान गौर वर्ण के हो और तुम्हारे अन्दर से सच्ची श्रद्धा की सुवास आ रही है, इसलिये “यथा नाम तथा गुणः” यह सदुक्ति तुम पर पूर्ण रूप से घटित हो रही है। परन्तु भाई ! इतनी जल्दी न करो, अभी तो तुम लोगों को बहुत कुछ नवीन सुनने और जानने का अवसर मिलेगा, अनेक आगमों में मूर्तिपूजा सम्बन्धी पाठ देखने में आयेंगे, इसी प्रकार मात्र ३२ मूल सूत्रों को मानने का मोह दूर होगा, आगमों पर किये गये नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और पूर्वाचार्यों की प्राचीन टीकाओं को स्वीकार करना होगा तथा मुंहपत्ति के शास्त्रीय स्वरूप और प्रयोजन से परिचित होने का जब समय आवेगा तब तुम लोगों को और भी आनन्द होगा। अस्तु अब रजोहरण के माप की बात सुनिये । निशीथ सूत्र में जो यह लिखा है कि बिना माप का रजोहरण रखने वाले साधु साध्वी को प्रायश्चित लगता है तो आगम शास्त्रों में इसका कहीं न कहीं अवश्य उल्लेख होना चाहिये । परन्तु अपने जिन बत्तीस सूत्रों को प्रमाण मानते हैं[जिनमें निशीथ सूत्र भी है ] उन में तो कहीं इस बात का ज़िकर तक भी नहीं है फिर रजोहरण का माप कहां ढंढें ?
इन ३२ सूत्रों में तो उसका गन्ध तक नहीं । इसके लिये निशीथचूर्णी और ओघनियुक्ति की शरण लेनी पड़ेगी । परन्तु इनमें मूर्ति सम्बन्धी पाठों की भरमार है। अब करें तो क्या करें ? यहां तो "इतोव्याघ्रः इतस्तटी" वाली दशा उत्पन्न हो जाती है । अगर निशीथचूर्णी और श्रोधनियुक्ति श्रादि को मानें तब तो मूर्तिपूजा गले पड़ती है और न मानें तो बिना माप के रजोहरण रखने से जो प्रायश्चित लगता है, उससे बच नहीं पाते । परन्तु हम लोगों ने मूर्तिपूजा के शास्त्रीय परमार्थ को न समझते हुए इस आगम सम्मत सर्व मान्य
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