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नवयुग निर्माता
(६) रयत्ताणं-रजस्त्राण-पात्रे ढकने का वस्त्र, जो कि एक पात्र में डालकर दूसरा उसमें फंसाया जाता है फिर उस कपड़े की दूसरी तह को दूसरे पात्रे में डालकर उसमें तीसरा पात्रा रक्खा जाता है इसी प्रकार तीनों पात्रे कपड़े से लपेटे जाते हैं । इससे पात्रे, रज-धूली आदि के स्पर्श से सुरक्षित रहते हैं इसलिये इसे रजस्त्राण कहते हैं । इतना कहने के बाद आपने उसी प्रकार पात्रे रख कर बता दिया। यह देख एक साधु ने कहा कि अपने में भी कोई कोई साधु पात्रे में कपड़ा रखते हैं परन्तु वह इस तरह नहीं रखते।।
(७) गोच्छाओ-पात्र स्थापना में पात्रे रखकर झोली की गांठ में भराने के लिये बीच में छेद किया हुआ ऊन का टुकड़ा-जिसमें झोली भराई जावे उसे गोच्छक कहते हैं । देखो ! पात्रे झोली में बान्धकर नीचे पात्रस्थापन में झोली रखकर उसके चारों कोनों में डोरी लगी हुई होती है फिर गोच्छा लेकर उसमें झोली भराकर नीचे का और ऊपर का ऊन का टुकडा डोरी से बांधा जाता है । इस तरह से संवेगी साधु विहार में पात्रे बान्धकर चलते हैं । जब श्री आत्मारामजी ने इस प्रकार पात्रे बान्धकर साधुओं को दिखाये तो मुस्कराते हुए कई एकने कहा-कि महाराज ! यह तो बड़ा सुन्दर डब्बा बन गया ।
श्री विश्नचन्दजी-हंसने वाले साधुओं को सम्बोधित करते हुए बोले--यह हंसी का स्थान नहीं है, भगवान के कहे हुए उपकरणों का उपयोग कैसे करना और उससे जीव जन्तु की रक्षा कैसे हो सकती है, इसे समझने का यत्न करना चाहिये।
श्री आत्मारामजी-श्री विश्नचन्दजी को सम्बोधित करते हुए बोले--भाई ! इन्होंने कभी यह वस्तु देखी नहीं, इसलिये कुतूहलवश ये हंस रहे हैं । आखिर में ये हैं तो छद्मस्थ ही न ? आपके इन सारगर्भित कोमल वचनों को सुन कर सबने विनयपूर्वक मिथ्या दुष्कृत दिया और हाथ जोड़कर क्षमा मांगते हुए बाकी के उपकरणों के परमार्थ को समझाने की सविनय प्रार्थना की । तब आपने बाकी रहे उपकरणों के परमार्थ को समझाना शुरु किया
(5) तिन्नेवय पच्छागा--और तीन प्रच्छादक अर्थात ओढ़ने की तीन चादर एक ऊन की और दो सूत की।
(E) रयोहरण-रजोहरण-जिसे ओघा कहते हैं । यह जैन साधु का मुख्य चिन्ह है । और सब वस्तु होवे किन्तु रजोहरण पास में न होवे तो जैन साधु की पहचान नहीं होती । इसलिये जैन साधु की पहचान का खास चिन्ह ओघा-रजोहरण है। भले ही मुंह बन्धा हो या खुला परन्तु अोघा पास में न हो तो कोई भी साधु उसे जैन का साधु नहीं कहेगा । इसलिये शास्त्रों में इसका ऋषिध्वज के नाम से उल्लेख किया है।
चम्पालालजी-महाराज ! इसका कोई परिमाण भी है कि कितना लम्बा होना चाहिये ? अथवा जितना जी चाहे रक्वे, कारण कि बहुतों का छोटा बड़ा देखने में आता है।
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