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________________ पर द्वष हो उनके नाम, स्थापना आदि चारों निक्षेपा पर भी द्वेष बुद्धि आती है। साक्षात् शत्रु को देखकर जैसे वैरभाव पैदा होता है वैसे ही उसकी मूर्ति को देखकर या नाम आदि सुनने से भी द्वेष भाव अवश्य प्रकट होता है । ___ जो तीर्थंकरों के भाव निक्षेपा पर भक्ति रखते हैं तथा उनकी मूर्ति पर द्वष-उनसे पूछे कि तुम्हारी मान्यता के अनुसार तो तुम्हारे मित्र आदि को साक्षात् देखकर तो तुम्हें प्रेम होना चाहिये परन्तु उनकी मूर्ति तथा नाम आदि देखकर और सुनकर प्रेम नहीं होना चाहिये पर द्वष पैदा होना चाहिये अथवा साक्षात् शत्रु से मुलाकात होते ही चित्त में क्रोधाग्नि प्रकट होनी चाहिये परन्तु उसकी स्थापना तथा नाम से द्वेष उत्पन्न नहीं होना चाहिए किंतु आनंद उत्पन्न होना चाहिये। पर ऐसा विपरीत क्रम किसी भी स्थान पर देखने में नहीं आता। कभी ऐसा कहा जाय कि-शत्र एवं मित्र दोनों में समभाव रखना चाहिये किंतु रागद्वेष नहीं करना चाहिये परन्तु ऐसा कथन केवल कहने मात्र का है। बड़े बड़े योगीश्वर भी जहाँ तक घाती कर्मों के योग से मुक्त नहीं हो जाते तब तक राग द्वेष से पूर्णतया नहीं छूट सकते तो संसार के अनेक जंजालों के मोह में फंसे गृहस्थ रागद्वेष रहित समभाववाली अवस्था में रह सकते हैं,ऐसा कहना या मानना केवल वंचना मात्र है। एक ओर केवल श्री तीर्थंकरदेव के भाव निक्षेपा पर ही प्रेम रखने की बात करना तथा दूसरी ओर समभाव में रहने की बात करना इसमें प्रत्यक्ष मृषावाद है। भाव निक्षेपा पर राग परन्तु मूर्ति पर द्वष, यह राग-द्वेष रहित स्थिति का लक्षण कैसे माना जा सकता है । एक निक्षेपा पर द्वेष रखने से दूसरे निक्षेपा पर भी द्वेष स्वतः ही सिद्ध हो जाता है। स्थापना निक्षेपा पर द्वष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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