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________________ ८५ किया ? पालन नहीं, परन्तु उल्लंघन ही कहा जायगा। इस दृष्टि से श्री तीर्थंकर-गणधर-प्रणित सूत्रों में प्रतिपादित स्थापना निक्षेपा को मानने वाला स्वयं भगवान् का ही प्रादर करने वाला बनता है तथा नहीं मानने वाला स्वयं भगवान् का ही अपमान करने वाला बनता है इसमें लेशमात्र भी आश्चर्य नहीं है। अपने पूर्वजों के चित्र तथा फोटो, आदि उनके संपूर्ण स्वरूप का बोध कराने वाले होने से उनके भाव निक्षेपा की अोर आकर्षित करते हैं, इसमें कोई शंका नहीं है । पर बड़े व्यक्तियों के पूर्णस्वरूप का बोध नहीं कराने वाले उनके वस्त्र, आभूषण एवं पोषाक अादि देखने से भी उनके गुण याद हो आते हैं । यदि निर्जीव रूप स्थापना निक्षेपा सर्वथा निरर्थक होते तो पूर्वोक्त कार्यों में जिस प्रकार के भिन्न भिन्न भाव आते हैं वे नहीं आने चाहिये। इस पर से सोचना चाहिये कि परम पूजनीय, परमोपकारी, आराध्यतम, अनंतज्ञानी, देवाधिदेव श्री तीर्थंकर भगवान् की शांत, निर्विकार और ध्यानारूढ़ भव्यमूर्ति के दर्शन से श्री वोतरागदेव के गुणों का स्मरण अवश्य होता ही है तथा उनकी उस मूर्ति को मान देकर; हम उनका विनय करते हैं-ऐसा अवश्य कहा जाता है। इतना ही नहीं पर उनकी मूर्ति के बारबार दर्शन, पूजन और सेवन से उनके भाव निक्षेपा ऊपर का आदर और प्रेम दिन प्रति दिन अवश्य बढ़ता जाता है । ___ यदि वस्तु के भाव निक्षेपा पर प्यार हो तो उसकी स्थापना आदि पर भी प्यार आता है। इसी तरह जिनके भाव निक्षेपा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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