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एक नाम या एक मूर्ति वाले भिन्न भिन्न पुरुष के चार चार निक्षेपा भी भिन्न भिन्न है, यह बात सिद्ध होती है । ' जैसे कि किसी के गुरु का नाम श्री रामचन्द्र' है और उस नाम के संसार में लाखों पुरुष विद्यमान हैं। गुरु के नाम वाले 'रामचन्द्र' ऐसे अक्षरों में गुरु के आकार का तो कोई भी चिन्ह है ही नहीं तो फिर नाम मात्र से उस नाम के हजारों, लाखों पुरुषों में से किसका स्मरण और किसको नमस्कार सिद्ध होगा? यदि कहोगे कि 'रामचन्द्र' शब्द से मात्र गुरु का ही स्मरण और गुरु को ही नमस्कार हुमा पर अन्य को नहीं तो कहना ही पडेगा कि-'रामचन्द्र' नाम के दूसरे सभी पुरुषों को नमस्कार नहीं करने के लिये और केवल श्री रामचन्द्र' नाम के अपने गुरु को ही नमस्कार करने के लिये गुरु की आकृति आदि को मन में स्थापित की हुई ही होगी। इस प्रकार प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से स्थापनादि निक्षेपा स्वाभाविक रूप से गले में पड़ ही जाते हैं।
यहाँ यदि ऐसी शंका हो कि, स्थापना निर्जीव होने से कार्य साधक और पूजनीय कैसे बन सकती है ? तो इसका समाधान यह है कि निर्जीव वस्तुमात्र यदि निरर्थक और अपूजनीय हो तो श्री समवायांग, श्री दशाश्रुतस्कंध तथा श्री दशवकालिक आदि सूत्रों में फरमाया है कि गुरु के पाट, पीठ, संथारा आदि वस्तुओं को पैर को ठोकर लग जाय तो भी शिष्य को गुरु की प्राशातना का दोष लगता है। गुरु के 'पाट वगैरे तो निर्जीव ही हैं।
पूर्वोक्त वस्तुएँ निर्जीव होते हुए भी गुरुत्रों की स्थापना होने के नाते उनका अविनय करने से शिष्य को आशातना
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