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पाद सूत्र-सिद्धान अंश रूपी अक्षक वे भो श्री
हो उसे तो श्री जिनस्वरूप प्रतिमा को 'स्थापना'-जिन के रूप में नि:सन्देह स्वीकार करना ही पड़ेगा।
यदि स्थापना को निरर्थक माना जाय तो जैन धर्म के सभी सूत्र-सिद्धान्त भी व्यर्थ बन जाते हैं क्योंकि वे भी श्री वीतराग देव के अरूपी ज्ञान के अंश रूपी अक्षरों को स्थापना ही है और यदि सूत्र-सिद्धान्तों का लोप होता है तो जैन धर्म का ही लोप हो जाता है । जिनको धर्म का लोपक नहीं बनना हैं वे स्थापना की उपेक्षा किसी प्रकार नहीं कर सकते।
जिस प्रकार नाम के साथ चार निक्षेपा जुड़े हुए हैं उसी प्रकार स्थापना के साथ भी चार निक्षेपा जुड़े हुए हैं। यदि ऐसा न हो तो कुत्ते का चित्र देखते बिल्ली का ज्ञान हो जाना चाहिये और बिल्ली का चित्र देखने पर कुत्ते का ज्ञान होना चाहिये । परन्तु कुत्त का चित्र देखकर कुत्त का ही ज्ञान होता है और किसी का नहीं क्योंकि चित्र देखते ही कुत्ते के चार निक्षेपा का ज्ञान होता है । जिसका चित्र देखने में आता है उसके चार निक्षेपा मन में स्पष्ट हो जाते हैं। ___ यदि ऐसा नहीं होता तो भगवान् श्री ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा देखने पर श्री पार्श्वनाथ प्रभु का स्मरण हो जाना चाहिये क्योंकि दोनों के भाव निक्षेपा समान हैं। भाव निक्षेपा समान होते हुए भी एक तीर्थंकर की मूर्ति देखने से अन्य तीर्थकरों का बोध नहीं होता, इसका कारण मूर्ति के साथ जुड़े हुए अन्य निक्षेपा हैं । निक्षेपों का विषय यदि व्यर्थ है तो एक 'कुमुदचन्द्र का नाम लेने या उसकी मूर्ति देखते समय जितने 'कुमुदचन्द्र' हों, उन सबका ज्ञान उस समय होना चाहिये पर ऐसा नहीं होता परन्तु केवल एक का ही ज्ञान होता है । अर्थात्
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