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२. स्थापना निक्षेपा
जिस वस्तु का नाम मात्र सुनकर उसका बोध और भक्ति होना संभव है, तो वस्तु की प्रकृति अथवा जिसमें नाम के उपरांत श्राकार है उससे अधिक बोध और भक्ति कैसे नहीं होगी ? और उसे करने के लिये कौन इच्छा नहीं करेगा ? नाम निक्षेपा जिस प्रकार शास्त्र सिद्ध है उसी प्रकार स्थापना निक्षेप भी अनेक शास्त्रों से सिद्ध है |
श्री अनुयोगद्वार सूत्र में दस प्रकार से स्थापना का स्थापन करने को कहा गया है । १ काष्ट में, २ चित्र में, ३ पुस्तक में, ४ लेपकर्म में, ५ गुंथन में, ६ वेष्टन क्रिया में, ७ धातु का रस डालने में, ८ अनेक मणियों के संघात में, ६ शुभाकार पाषाण में और १० छोटे शंख में ।
इन दस प्रकारों में से किसी भी प्रकार में क्रिया तथा क्रियावान् पुरुष का प्रभेद मानकर, हाथ जोड़े हुए तथा ध्यान लगाये हुए आवश्यक क्रिया सहित साधु को प्राकृति के रूप में अथवा प्रकृति रहित स्थापना करना अथवा आवश्यक सूत्र का पाठ लिखना, यह स्थापना आवश्यक कहलाता है ।
हाथ जोड़कर तथा ध्यान लगाकर क्रिया करने वाले का रूप यदि सद्भाव स्थापना है तो पद्मासनयुक्त ध्यानारूढ़, मौनाकृति, श्री जिनमुद्रासूचक प्रतिमा स्थापनाजिन कैसे नहीं कहलाये ? यदि प्रतिमा स्थापनाजिन नहीं तो पूर्वोक्तस्वरूप आवश्यक भी स्थापना आवश्यक नहीं कहलायगा और ऐसा करने से श्री अनुयोगद्वार सूत्र के पाठ का अपलाप कैसे नहीं होगा ? सूत्र के पाठ का लोप अथवा अपलाप जिसको नहीं करना
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