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होता ऐसा अज्ञानी बालक साक्षात् सोमल या सर्प वगैरह से बच नहीं सकता। इससे यह सिद्ध होता है कि भाव का साक्षात् ज्ञान कराने वाला अकेला भाव नहीं पर उसका नाम, आकार तथा पूर्वापर अवस्था, ये सब मिलकर ही किसी भी पदार्थ के भाव का निश्चित बोध कराते हैं ।
केवल भाव निक्षेपा को मानकर जो नाम आदि निक्षेपों. को मानने से इन्कार करते हैं उन्हें कोई दुष्ट व्यक्ति उनके पूज्य या प्रिय व्यक्ति का नाम लेकर निंदा करे, गाली दे या तिरस्कार करे तो क्या उनको क्रोध नहीं पाता? अथवा उसी पूज्य या प्रिय व्यक्ति के नाम से उनकी तारीफ करे तो क्या खुशी नहीं होती ? अवश्य होती है। अतः नाम निक्षेपा व्यर्थ है, ऐसा कहने वाला मिथ्याभाषी ही है ।
इसी प्रकार अपने पूज्य आदि के चित्र को किसी दुराचारी स्त्री के साथ रखकर उस पर से कुचेष्टा वाला चित्र लेकर कोई नालायक व्यक्ति स्थान-स्थान पर उसकी अपकीति करे तो इससे मूर्ति को नहीं मानने वालों को भी क्या क्रोध नहीं अाता ? अवश्य पाता है। अर्थात् स्थापना निक्षेपा भी व्यर्थ है, यह बात गलत है।
नाम और स्थापना की भाँति ही अपने पूज्य आदि की पूर्वापर अवस्था की बुराई या भलाई सुनने से क्रोध या आनन्द पैदा होता है और पूज्य के लिये साक्षान् अपकीर्ति और अपशब्द सुनने पर भी इनके चाहने वालों को अवश्य दुःख होता है तथा प्रशंसा सुनने पर सुख की प्राप्ति होती है। इससे यह स्पष्ट है कि चारों निक्षेपों में भिन्न २ प्रभाव उपजाने की शक्ति प्रकट रूप से समाविष्ट हुई है।
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