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________________ २. बत्तीस आगमों की भी नियुक्ति, भाष्य और चूणि वगैरह नहीं मानने से, उनके विरुद्ध स्व-कपोल-कल्पित टीकाटब्बे आदि बनाकर, स्व-पर को अनर्थ के भयंकर खड्ड में डुबोना है। ३. अन्य चरित्रादि ग्रन्थों में से मूर्ति-विषयक पाठ उड़ा कर उसकी जगह स्व-कल्पित पाठ लिखकर सैंकड़ों ग्रन्थों में मूल ग्रन्थकर्ता के अभिप्राय के विरुद्ध उथल पुथल और चोरियाँ करनी पड़ती हैं और इससे भी महा कर्म बंधन होता है । ४. मूर्ति को नहीं मानने से यात्रा हेतु तीर्थ स्थानों में जाना आदि स्वतः ही बन्द हो जाता है। इससे तीर्थ स्थानों में यात्रा निमित्त जाने के जो लाभ होते हैं वे अपने पाप नष्ट हो जाते हैं । तीर्थ भूमि में जाने पर उतना समय गृहकार्य, व्यापार, प्रारम्भ, परिग्रहादि से स्वाभाविक मुक्ति मिलती है पर जब ऐसे स्थानों पर जाना बन्द हो जाता है तब ब्रह्मचर्य पालन तथा शुभ क्षेत्रों में द्रव्य व्यय आदि द्वारा जो पुण्योपार्जन आदि होता है वह रुक जाता है। ५. मूर्ति को नहीं मानने से श्री जिनेश्वर देव की द्रव्यपूजा छट जाती है और इससे द्रव्यपूजा निमित्त जो शुभ द्रव्य व्यय होता है तथा भगवान् के सामने स्तुति, स्तोत्र, चैत्यवंदनादि होते हैं वे रुक जाते हैं और श्री जिनमंदिर जाकर प्रभुभक्ति के निमित्त अपने समय और द्रव्य का सदुपयोग करने वाले पूष्यवान प्रात्माओं की टीका और निन्दा करना ही बाकी रहता है : इससे क्लिष्ट कर्म की उपार्जना तथा बोधि दुर्लभतादि महान् दोषों की प्राप्ति होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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