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श्री जिनशासन स्याद्वादभित है। सुविवेक पूर्वक के श्राशयभेद से हिंसा भी अहिंसा बन जाती है तथा विवेकहीन की अहिंसा भी हिंसा बन जाती है । आत्मभाव का जिसमें हनन होता है वह हिंसा है पर जिससे आत्मभाव का हनन नहीं होता वह हिंसा नहीं है । दान, देवपूजा, प्रतिक्रमण, पौषध, साधुविहार तथा सार्मिक वात्सल्य आदि आत्मा का हनन करने वाली क्रियाएँ नहीं हैं और इसीलिये वे परंपरा से पूर्ण अहिंया मय हैं तथा वे मुक्ति दिलाती हैं । 'मुक्ति के साधनों का सेवन करते समय होने वाली अनिवार्य हिंसा आत्मभाव का हनन करने वाली नहीं होती' यह समझ जिनको नहीं आई वे धर्म बुद्धि से ही अधर्म का सेवन करने वाले बनें अथवा अधर्म के सेवन को ही धर्म का कारण मानने लगें तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। - दानादि शुभ कार्यों की भाँति श्री जिनपूजा प्रात्मभाव को विकसित करने वाली है; अतः हिंसा के नाम पर इससे दूर रहना या दूसरों को दूर भगाना घोर अज्ञानतापूर्ण आत्मघाती कदम है। मूर्ति को नहीं मानने से होने वाले नुकसान : .
मूर्ति को नहीं मानने से निम्न लिखित नुकसान स्पष्ट हैं :
१. मूर्ति को नहीं मानने के कारण ३२ उपरांत के प्रागमों से, पूर्वधरों द्वारा बनाये गये नियुक्ति आदि ज्ञान के समुद्र समान महाशास्त्रों से तथा उनके उत्तमोत्तम सद्बोधों से वंचित रहना पड़ता है और आगमों के सूत्रों को एवं ग्रन्थकर्ता प्रामाणिक महापुरुषों को अप्रामाणिक कहकर ज्ञान तथा ज्ञानियों की पाशातना से घोर पापकर्मों का उपार्जन होता है।
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