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तथा सदारंभ में जो द्रव्य खर्च होता है उस द्रव्य से असदारंभ का सेवन नहीं होता ।
हिंसा के तीन प्रकार :
साधु अथवा श्रावक के जितने भी उत्तम कार्य हैं उनमें हिंसा निहित है पर यह हिंसा कर्मबंध का कारण नहीं है क्योंकि हिंसा तीन प्रकार की कही गई है : हेतु, स्वरूप और अनुबंध । सांसारिक कार्यों की सिद्धि के लिये होने वाली हिंसा हेतु - हिंसा है, धर्म कार्यों के लिये होने वाली अनिवार्य हिंसा स्वरूप - हिंसा है तथा मिथ्यादृष्टि श्रात्मा से होने वाली हिंसा अनुबंध हिंसा है। इनमें स्वरूप हिंसा कर्मबंध का कारण नहीं है ।
धर्म कार्य के समय प्राणी की हत्या का नहीं परन्तु उसकी रक्षा करने का उद्देश्य होता है पर फिर भी अनिवार्य रूप से यदि हिंसा हो जाती है तो वह स्वरूप हिंसा है । स्वरूप हिंसा तेरहवें गुणस्थानक तक नहीं टल सकती परन्तु इसे केवलज्ञानादि गुणों की प्राप्ति में प्रतिबंधक नहीं माना गया है ।
हेतु - हिंसा व अनुबंध - हिंसा त्याज्य है क्योंकि वे संसार के हेतुभूत क्लिष्ट कर्मों के उपार्जन में हेतुभूत है । श्री श्राचारांगादि सिद्धान्तों में अपवाद रूप से हिंसा आदि का प्रयोग करने वाले मुनिवरों को तथा समुद्र के जल में अपकायादि की विराधना होते हुए भो शुभध्यानारूढ मुनिवरों को केवलज्ञान तथा मुक्ति प्राप्त होने के उदाहरण हैं । संयम शुद्धि के लिये आवश्यक साधु विहारादि की भाँति श्री जिनभक्ति आदि में होने वाली हिंसा को श्री जिन आगमों ने कर्मबंध करने वाली नहीं माना हैं। केवल दया की निरपेक्ष प्रधानता, यह लौकिक मार्ग है । लोकोत्तर मार्ग श्री जिनाज्ञा की प्रधानता में बसा हुआ है ।
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