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श्रावश्यक सूत्र, श्री भगवती सूत्र, श्री आचारांग सूत्र और श्री ज्ञातासूत्र यादि श्रागमों में मुनिदान, साधुविहार और साधर्मिक वात्सल्य आदि धर्मकार्य करने की साधु तथा श्रावक दोनों को आज्ञा दी गई है। श्री उववाई सूत्र में राजा कोरिक के किये हुए प्रभु के वंदन महोत्सव का विस्तृत वर्णन है । श्री भगवती सूत्र में उदायन राजा द्वारा किया हुआ भगवान् के नगर प्रवेश महोत्सव का तथा तुरीया नगरी के श्रावकों द्वारा की गई श्री जिनपूजादि का वर्णन है ।
श्री विपाक सूत्र में सुबाहुकुमार का वर्णन है । उसमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक पर रहे हुए भी उन सुबाहुकुमार द्वारा किये हुए सुपात्रदान से भी पुण्यबंध तथा परित्त संसार होने का कहा है । जो हिंसा के योग से केवल अधर्म ही होता तो सुबाहुकुमार को पुण्यबंव की प्राप्ति तथा परित्त संसारिता की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती थी । पर सच्ची बात तो यह है कि दान की भाँति जिन पूजा भी परित्त संसार तथा पुण्यबंध का कारण होती है ।
श्री जिनपूजा तथा सुपात्रदानादि धर्म कार्यों में श्रारंभ होता है पर फिर भी वह सदारंभ है और उसके योग से संसार के अन्य सदारंभ से निवृत्ति होती है, यह बड़ा लाभ है । जो लोग घर, कुटुंब, धन-माल, परिवार, बिरादरी श्रादि असदारंभों में मुक्त नहीं हुए हैं उनके लिये दान, देवपूजा, स्वामिवात्सल्य आदि सदारंभ हितकारी तथा करणीय हैं। श्री रायपसेरगी सूत्र में श्री केशी नाम के गणधर भगवंत ने प्रदेशी राजा को असदारंभ छोड़ने को कहा है न कि सदारंभ | सदारंभ में दो गुण हैं जहाँ तक सदारंभ रहता है वहां तक असदारंभ नहीं हो सकता
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